"इस ढालू चट्टान पर चढ़ना होगा।" "यह वहुत कठिन है।" "परन्तु दूसरा उपाय ही नहीं है।" "तव चढ़ो।" तानाजी चट्टान को दोनों हाथों से दृढ़ता से पकड़ कर खड़े हो गए। देखते-देखते दूसरा सैनिक छलांग मारकर चट्टान पर हो रहा, और सेना-नायक को खींच लिया। उस बीहड़ और सीधी खड़ी चट्टान पर धीरे-धीरे ये हठी सैनिक उस दुर्भेद्य अन्धकार में चढ़ने लगे। कल्याण दुर्ज के नीचे आकर तानाजी ने कहा-"अब कमन्द लामो।" सन्दूकची में से शिवाजी की प्रसिद्ध घोर पड़ 'यशवन्त' गोह निकाली गई। उसके माथे पर तानाजी ने चन्दन का तिलक लगाया। गले में माला पहनाई और कमन्द में बाँधकर फेंका। परन्तु गोह स्थान पर न पहुँच सकी, वापस आ गई। तानाजी ने क्रोध करके कहा- "इस वार भी यशवन्त लौट आया तो इसे मारकर खा जाऊँगा।" उन्होंने पूरे जोर से उसे ऊपर फेंका। गोह ने बुर्ज पर पंजे गाढ़ दिए । तानाजी दाँतों में तलवार दवाए बुर्ज पर पहुंच गए। वहाँ जगतसिंह तैयार था। उसका साथी तुर्क मरा पड़ा था। रस्सियों को बुर्ज के कंगूरों में अटका दिया गया। अब एक के बाद दूसरा और फिर तीसरा। इस प्रकार बारह सैनिक बुर्ज पर पहुँच गए, इसी समय कमन्द टूट गया। नीचे के सिपाही नीचे रह गए । दुर्ग में सन्नाटा था । सब चुपचाप दीवारों की छाया में छिपते हुए फाटक की ओर बढ़ रहे थे । फाटक पर प्रहरी असावधान थे। एक ने सजग होकर पुकारा-"कौन ?" दूसरे ही क्षण एक तलवार का भरपूर हाथ उस पर पड़ा। सभी प्रहरी सजग होकर आक्रमण करने लगे। देखते-ही-देखते किले में १५२
पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१५४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।