तानाजी बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए चीते की भांति उछलकर कूद पड़े और घर में चले गए। कुछ ही क्षण बाद वह अपने प्यारे बचें और विशाल तलवार के साथ सज्जित होकर घोड़े पर सवार हुए । विवाह का आनन्द-समारोह स्तब्ध हो गया। गुरुजनों को प्रणाम कर पुत्र को छाती से लगा उन्होंने बढ़ते हुए सन्ध्या के अन्धकार में डूवते हुए सूर्य को लक्ष्य कर उन दुर्गम पर्वत-उपत्यकाओं में घोड़ा छोड़ दिया। ५५ बीड़ा-ग्रहण तानाजी के आने पर शिवाजी ने उन्हें माता की आज्ञा सुना दी। माता की आज्ञापालन कर तानाजी ने बीड़ा आदरपूर्वक उठा पगड़ी में रख लिया। जीजाबाई ने आकर वीर की आरती उतारी। दूसरे ही दिन एक हजार जुझाऊ वीरों की सेना लेकर उन्होंने सिंहगढ़ की ओर प्रस्थान किया और एक सघन जङ्गल में डेरा डाला । सिंहगढ़ किले में समाचार ले जाने पहुँचाने वाले लोग कोली और कुम्हार लोग थे। उन्हें हर समय किले से बाहर और बाहर से किले में आने-जाने की छूट थी। तानाजी ने उनसे मिलकर काम निकालने की युक्ति सोची। दैवयोग से अनुकूल अवसर भी मिल गया। कोलियों के सरदार रायजी की पुत्री का ब्याह पूना निवासी दौलतराय के पुत्र के साथ था। दौलतराय तानाजी के परिचित थे । दौलतराय की सहमति से तानाजी एक कलावन्त की हैसियत से बारात में सम्मिलित हो गए। दौलतराय ने तानाजी को प्रसिद्ध कलावन्त गोन्धाजी तोताराम बताया। जव उन्होंने मधुर स्वर में शिवाजी का स्तवन गाया तो श्रोता मुग्ध होकर शिवाजी की चर्चा करने लगे। गायन का अभिप्राय था कि शिवाजी शिव के अवतार हैं । अम्बावाई १४८
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