और महाराज जसवन्तसिंह को दिए गए, शिवाजी को खिलात भी नहीं मिली। उधर घण्टे भर से खड़े रहने के कारण वे थक गए थे और इस अपमान से, गुस्से से लाल हो उठे । औरङ्गजेव की नजरों से यह छिपा न रहा, तब उसने रामसिंह से कहा कि शिवाजी से पूछो कि उनकी तबियत कैसी है। कुंवर शिवाजी के पास आया, तव शिवाजी ने गुस्से से लाल होकर कहा-"तुमने देखा है, तुम्हारे वाप ने देखा है । क्या मैं ऐसा आदमी हूँ कि जानबूझकर मुझे यों खड़ा रखा जाए।" फिर उन्होंने चिल्लाकर कहा-"ये कौन हैं जो औरत के सुनान गहने पहन कर मेरे आगे खड़े हैं । वे मुझसे ज्यादा इज्जत रखते हैं तो युद्धक्षेत्र में अपनी योग्यता प्रकट करें । मैं यह शाही मनसव छोड़ता हूँ।" वे मुड़कर बादशाह की तरफ पीठ करके वहाँ से चल दिए और जाकर एक ओर बैठ गए। रामसिंह ने उन्हें समझाया लेकिन उन्होंने एक न सुनी और कहा-“मेरा सिर काटकर ले जाना चाहो तो ले जा सकते हो, लेकिन मैं बादशाह के सामने अब नहीं आता। मुझे जान-बूझ कर बादशाह ने जसवन्तसिंह के नीचे खड़ा किया है, इसलिए मैं सिरोपाव भी नहीं पहनता।" बादशाह ने मुल्तफितखां, प्राकिलखां और मुखलिसखां को सम- झाने-बुझाने भेजा, परन्तु शिवाजी टस से मस न हुए। तब बादशाह ने रामसिंह को हुक्म दिया कि वह उसे डेरे पर ले जाकर समझा-बुझाकर शान्त करे । रामसिंह उन्हें अपने साथ ले गया। औरंगजेब की कुटिल नीति शिवाजी उस मसाले के नहीं बने थे, जो किसी भी कीमत पर पराधीनता स्वीकार करते और दूसरे के सामने झुकते । वह तो उन
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