आगरे में रहता था तो इन गलियों में आने-जाने वालों की बड़ी भीड़ जमा हो जाती थी और खूब धक्कम-धक्का होती थी। अमीर और साहूकारों ने अपने मकानों के सहन में साएदार वृक्ष लगवाए थे, जिसके कारण आगरे का दृश्य देहाती-सा तो जरूर दीख पड़ता था परन्तु बहुत सुहावना मालूम देता था । वनियों की हवेलियां बीच-बीच में गढ़ी जैसी ज्ञात होती थीं। १२ मई का प्रभात बहुत सुन्दर था। इस दिन आगरा शहर और दरवारेशाही की सजावट खास तौर पर की गई थी क्योंकि इस दिन वादशाह की ५० वीं वर्षगाँठ थी। शहर और किले में जश्न मनाए जा रहे थे, सड़कों पर भारी भीड़ थी, गर्द दवाने के लिए सड़कों पर दवादब छिड़काव किया जा रहा था और उस गर्म प्रभात में मिट्टी पर पानी पड़ने की सोंधी सुगन्ध वातावरण में भर रही थी। किले के बाहरी फाटक से ही दरवारहाल तक सैनिक पंक्तिबद्ध खड़े थे। उनके हाथों में छोटी-छोटी बन्दूकें थीं जिन पर लाल रंग की कनात की खोल चढ़ी हुई थी। पाँच-छ: सवार अफसर किले के फाटक पर भीड़- भाड़ जमा होने से रोक रहे थे और लोगों को हटा कर रास्ता साफ कर रहे थे। बादशाह की सवारी पालकी पर निकली। पालकी पर आस- मानी कमखाव के पर्दे पड़े थे। डंडों पर सुर्ख मखमल चढ़ी थी । उसे ८ चुने हुए तथा भारी वर्दी वाले कहार कन्धों पर उठा रहे थे। पीछे बहुत से अमीर थे-कोई घोड़े पर, कोई पालकी पर। इन्हीं के साथ मनसबदार और चाँदी की छड़ियाँ लिए हुए चोबदार भी थे शहर से किले तक की सड़क खचाखच भरी थी। किले के सामने वाले चौक में अमीर, राजे, मनसबदार जो दरबार में हाजिर होने को आए थे, ठाठ से घोड़ों पर आगे बढ़ रहे थे। उनके घोड़े सजे हुए थे और प्रत्येक के साथ कम-से-कम चार खिदमतगार दौड़ रहे थे और १०७
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