शिवाजी ने लाल-लाल अङ्गारे के समान नेत्रों से अपने चारों ओर देखा और कहा-“यह भवानी की तलवार है । महाराज जयसिंह वृद्ध हैं, वीर हैं, हिन्दू हैं । मैं उन पर तलवार नहीं उठा सका। उन पर श्रद्धा के फूल बिखेर आया हूँ । निस्सन्देह उनका जीवन मुगलों की दासता में व्यतीत हुआ है परन्तु उनका क्षत्रियत्व और तेज कायम है। मैंने उनकी सीख मानकर केवल अपमानित होने का खतरा उठाया है। पर याद रखना, इसकी मैं बड़ी-से-बड़ी कीमत लेकर वापस लौटूंगा । वचन दो कि लौट कर आने पर तुम्हारी तलवारें तैयार मिलेंगी।" "अवश्य महाराज, हमारी तलवारें कभी म्यान में नहीं होंगी।' "तो मित्रो, हमने महाराज जयसिंह से सन्धि की है। हमारे और कपटी औरङ्गजेव के बीच वह वृद्ध राजपूत है, जिसकी तलवार की धार अटक से कटक तक प्रसिद्ध है। उन्होंने मुझसे कहा था कि जब सत्य से हिन्दू धर्म की रक्षा न हुई तो सत्य छोड़ने से कैसे होगी। वह बात मैंने गाँठ बाँध ली है और तब तक मैं सन्धि से बद्ध हूँ, जब तक शत्रु सन्धि भङ्ग न करे।" "महाराज, यदि औरंगजेब ने आगरा में आपके साथ दगा की, संधि भंग की, आपको बन्दी किया ?" "भवानी के आदेश से मैं आगरे जा रहा हूँ। भवानी का जो आदेश होगा, वह करूंगा । तुम डरते क्यों हो, अन्ताजी । यदि औरंगजेब ने दगा की तो मराठों की तलवारें भी ठण्डी नहीं हो गई हैं। वह आग बरसेगी कि दिल्ली और आगरा जलकर क्षार हो जायगा। अन्ताजी, आवाजी, स्वर्णदेव और मेरेश्वर ! मैं कुल राज्य का भार आप लोगों पर छोड़ता हूँ। आप मेरे लौटने तक राज्य-व्यवस्था तथा शासन कीजिए। और तानाजी, तुम अपने तीन सौ चुने हुए मराठों के साथ छद्म वेश में मुझसे प्रथम आगरा में जा पहुँचो तथा बिखर कर भिन्न-भिन्न स्वरूपों रहो तथा बादशाह और उसके दरबार की
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