पृष्ठ:सरस्वती १६.djvu/३०८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सल्या ३] अन्नपूर्ण के मन्दिर में। १८५ पात पूरी हो गई। उन लोगों के प्रामाद की सीमा छाया हुआ था। खूप निस्सम्यता थी। कमला ने ___ न रही। जाते समय सब लोगों में एक स्थर से भीरे धीरे अन्नपूर्या के मन्दिर में प्रवेश किया। कहा-"भगवती पनपूर्ण की जय, माता कुमारी उसका शरीर कांप रहा था । पास मन्दिर को छ की जय।" उसे ६ वर्ष हो गये। इम ६ घो में उसने न माने दरिद्धों के चले जाने पर देवी ने कहा- कितने पाप किये । कलहित देह लेकर उसे मन्दिर "कमला, यदि मुझसे कोई भूल हो जाय तो तुम मैं माने का साहस न होता था। पर देवी को एक समा फरमा।" इतने में किसी परिचारिका में प्राकर बार फिर देखने की उसे इध्म थी। इसलिए अन्धकार कहा-"फमला, देवी की मूर्ति कहाँ गई तो में यह पाई थी। कल रात को मन्दिर में धी।" देयी कुछ उत्तर देमा मन्दिर ज्यो का त्यों था। देयी की मूर्ति भी चाहती थी कि यह दासी बिल्ला उठी-"कमसा, जहां की सहाँ थी। प्रदीप के मलिन प्रकाश में भी तूने यह क्या किया ? देवी के प्राम्पस क्यों पहम मूर्ति को कमला स्पष्ट देख सफनी थी। उसे ऐसा लिये।" इसमा कह फर यह दूसरी पोर घळी गई। आन पड़ा कि इस समय भी यी उसकी पोर दया- थोड़ी देर में सप परिचारिका को साथ लिये दुए पूर्व नेत्रों से देख रही है। कमला गडद स्पर से मन्दिर की स्थामिनी पा गई। कमला के गले में कहने लगी-"देवि, में करनी है, पापिनी है। वेयी का हार देखते ही यह फर होकर पाली- तुम्हारे पाश्रय से अलग कर मन अनेक पाप किये "दुरे, तूने ऐसा क्यों किया? देख. मुझे में फैसा है। सारा संसार मुझ से प्रणा कर रहा है। मैं दण्ड देती है।" फिर परिचारिकानों की मार देस कुलटा है। इसलिए तुम्हारे मन्दिर में भी मुझे प्राधय कर कहा-"यह पिशाचिनी है। इसके पापो के म मिलेगा। सुम्हें देख कर आप मुझे दूसरी जगह कारण पेषी महश्य हो गई है। इसे पका कर आने की इच्म भी नहीं । मा, प्रथ तुम मुझे अपनी स्थामीजी के पास ले चलो।" माझा पाते ही सबमे गोद में ले लो । म पाती हैं। मुझे अलग मत करो।" उसे पका लिया पार स्वामीजी के पास ले गई। कमळा मे देवी के पैरों पर अपना प्राण त्याग स्थामी जहाँ रहते थे यहाँ अन्यकार था। पर उन दिया। मरते समय उसने सूना- लोगों के भीतर जाते ही यहाँ प्रकाश फैल गया। प्रवपूर्ण नेत्रों से जिसने किया प्राय का दाम । सय लोग यिमय विमुग्ध होकर कमला की पर उसकी भकि पार श्रदा का करती हूँ मैं मान ।। देखने लगे। उस समय उसके पदन-मडल से एक सेया पार दया का मिसने किया सदा विस्तार । विष्य स्वाति निकल रही थी। यह अलौकिक घम निश्छल प्रेम देस कर उसका लेती है मैं मार ॥ त्कार देख कर सब लोग पाश्चर्य और भय से स्तम्भित हो गये । तब स्वामी ने बिता कर कहा- दूसरे दिन लोगों ने देखा कि देवी की मूर्ति के "फममा को मादी । उसके पवित्र शरीर में देयी पास कमला का मृतदेह पड़ा है पीर देषी उसकी नियास कर रही है।" सब लोग अलग हो गये पार पोर फरणा हरि से देख रही है। रस काम्तिमयी मूर्ति की पम्दना करने लगे। पदुमलाल पुग्नालाल पक्षी। इस तरह का पर्व धीत गये। .प्रमितहजिमम् कपि मेर किए मारकरे प्रमापस्या की राति थी। थारों और अन्धकार प्रापार पर। . म