पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/७८

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कन्या-दान वस्तु आर्यावर्त में कन्यादान प्राचीन काल से चला आता है । कन्यादान और पतिव्रत-धर्म दोनों एक ही फल-प्राप्ति का प्रतिपादन करते हैं । अाज- कल के कुछ मनुष्य कन्यादान को गुलामी की हॅसली सच्ची स्वतंत्रता मान बैठे हैं। वे कहते हैं कि क्या कन्या कोई गाय, भैंस या घोड़ी की तरह बेजान और बेजबान है जो उसका दान किया जाता है । यह अल्पज्ञता का फल है- सीधे और सच्चे रास्ते से गुमराह होना है। ये लोग गंभीर विचार नहीं करते । जीवन के अात्मिक नियमों की महिमा नहीं जानते । क्या प्रेम का नियम सबसे उत्तम और बलवान् नहीं है ? क्या प्रेम में अपनी जान को हार देना सब के दिलों को जीत लेना नहीं है ? क्या स्वतन्त्रता का अर्थ मन की वेलगाम दौड़ है, अथवा प्रेमाग्नि में उसका स्वाहा होना है ? चाहे कुछ कहिए, सच्ची आजादी उसके भाग्य में नहीं, जो अपनी रक्षा खुशामद और सेवा से करता है । अपने आपको गँवाकर ही सच्ची स्वतन्त्रता नसीब होती है। गुरु नानक अपनी मीठी जबान में लिखते है :-"जा पुच्छो सुहामनो कीनी गल्लों शौह पाइए | आप गवाइए ताँ शौह पाइए और कैसी चतुराई' अर्थात् यदि किसी सौभाग्यवती से पूछोगे कि किन तरीकों से अपना स्वतन्त्रता-रूपी पति प्राप्त होता है तो उससे पता लगेगा कि अपने आपको प्रेमाग्नि में स्वाहा करने से मिलता है और कोई चतुराई नहीं चलती। True freedom is the highest summit of altruism and altruism is the total extinction of self in the self of all.“ ७–मेरे लिए स्वतन्त्रता परोपकार की भावना का चरम लक्ष्य है 'और परोपकार की भावना है-समष्टिगत 'स्व' में व्यक्तिगत 'स्व' का लय होना । ७८