अध्यापक पूर्णसिंह के निबन्ध एक जाति के आचरण के विकास के साधनों के सम्बन्ध में विचार करना होगा। व्याकरणविषयक स्खलन भी यत्र-तत्र मिलते हैं, जैसे- "इसकी उपस्थिति से मन और हृदय की ऋतु बदल जाते हैं," इस वाक्य में क्रिया का रूप स्त्रीलिंग के स्थान में पुंल्लिंग प्रयुक्त हुअा है । भाषा- विशेषज्ञों या अलंकार-शास्त्रियों को ये दोष बहुत कुछ अखर सकते हैं परन्तु सच तो यह है कि इन निबन्धों की अनगिन विशेषताओं में इस प्रकार के स्खलन नगण्य ही हैं-"एकोऽपि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः।" एक बात इस संकलन के सम्बन्ध में भी । अध्यापक पूर्णसिंह के निबन्धों का यह सर्व प्रथम संकलन और सम्पादन है। इसीसे यथेष्ट महत्वपूर्ण है, फिर इसके सम्पादक का हिन्दी-संस्कृत के साहित्य का मर्मज्ञ होना सोने में सुगन्ध का योग करता ही है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि यह कार्य बड़ी हड़बड़ी या जल्दी में सम्पन्न हुआ है । अनेक स्थलों पर टिप्पणी की आवश्यकता है । लेखक के जिन स्खलन-सूचक प्रयोगों और कथनों पर सम्पादक ने जो प्रश्न-सूचक चिह्न लगाये हैं, ध्यान देने पर उनमें से कई एक व्यर्थ सिद्ध होते हैं । फिर भी सब कुछ मिला कर यह पुस्तक संग्रहयोग्य है । आशा है इसका दूसरा संस्करण और भी अधिक परिष्कृतरूप में सामने आवेगा। विजया दशमी, २०१३ । हरवंशलाल शर्मा एम० ए०, पीएच० डी०, डी० लिट्. , ४६
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