भापा, अध्यापक पूर्णसिंह के निबन्ध अपने मत के समर्थन अथवा प्रतिपादन में इनके वाक्य लम्बे तथा एक से अनेक उपवाक्यो के परिकर से सशक्त होते हैं जिनकी गति में इतनी तीव्रता होती है कि पाठक को रुक कर सोचने का मौका ही नहीं मिलता और बात समाप्त होते-होते वह एक विचित्र-सी स्थिति में अपने. आपको कथन के समर्थन की हो ओर झुका हुआ पाता है- "यदि एक ब्राह्मण किसी डूबती कन्या की रक्षा के लिए -चाहे वह कन्या किसी जाति को हो, जिस किसी मनुष्य की हो, जिस किसी देश की हो-अपने आपको गंगा में फेंक दे-चाहे फिर उसके प्राण यह काम करने में रहें चाहे जायें-तो इस कार्य के प्रेरक प्राचरण की मौनमयी किस देश में, किस जाति में और किस काल में, कौन नहीं समझ सकता ? आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के समान सूत्रात्मक वाक्यों का भी प्रयोग इन्होंने किया है जिनकी व्याख्या सहज नहीं-"मजदूरी तो मनुष्य के समष्टिरूप का व्यष्टिरूप परिणाम है।" "मजदूरी करना जीवनयात्रा का आध्यात्मिक नियम है।" "प्रेम की भाषा शब्दरहित है।" आदि वाक्य इसी प्रकार के हैं । मिथ्या गर्व आदि बातों से जिन्हें अध्यापक पूर्णसिंह अनुचित समझते हैं-खोझ कर कहो कहीं इन्होंने कटूक्तियों का भी प्रयोग किया है, किन्तु इस विषय में इनका उद्देश्य उत्तेजना का संचार कर अनुचित से उचित की ओर प्रवृति होने की प्रेरणा देने के कारण प्रशंसनीय ही है गहणीय नहीं उदाहरण लीजिए- "किसी ने इन (भारतवासी) काठ के पुतलों को जो कहा कि तुम ऋषि सन्तान हो, 'बस अब हम ऋषिसन्तान हैं, इसकी माला फिरनी शुरू हुई है......"वे ऋषि अब होते तो सच कहता हूँ हमको म्लेच्छ
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