भूमिका त्रता नहीं पाती । जब तक देश में पवित्रता नहीं आती, तब तक बल नहीं आता।" 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” के ही अनुसार है। शारीरिकश्रम को अध्यापक जी श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं और प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य मानते हैं । जो श्रम करके नहीं खाता यह इनकी दृष्टि में समाज के ऊपर भार ही नहीं उसका शोपक भी है । घरेलू उद्योगधन्धो को ये भारत की उन्नति के लिए आवश्यक समझते हैं । इनका विचार है कि “यदि भारत की तीस करोड़ नर-नारियों की उँगलियाँ मिल कर कारीगरी के काम करने लगें तो उनकी मजदूरी की बदौलत कुबेर का महल उनके चरणों में आप ही आप आ गिरे।" मशीनों का आधिपत्य इन्हें बहुत खलता है और वास्तव में "भारतवर्ष जैसे दरिद्र देश में मनुष्य के हाथों की मजदूरी के बदले कलों से काम लेना काल का डङ्का बजाना होगा। इससे कोई भी विवेकी अर्थशास्त्री असहमत न हो सकेगा। पूर्णसिंह जी के निबन्धों में इनका विस्तृत अनुभव, गहन निरीक्षण और गम्भीर अध्ययन सर्वत्र दृग्गोचर होगा। अनेकानेक धार्मिक, दार्शनिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक एवं साहित्यिक संदर्भा का समावेश होने से उनमें रोचकता के साथ विश्वस- नीयता भी आ गयी है। विभिन्न धर्मो और सभ्यताओं की चिन्तन- धाराओं का संगम इनकी विचारधारा को तीर्थराज बनाये हुए है। मानवता, गुण, पवित्रता और श्रेष्ठ प्राचरण किसी जाति अथवा धर्म विशेष से सम्बद्ध व्यक्तियों की ही थाती नहीं है अपितु वे सब जाति, धमी और देशों के लोगों में पाये जा सकते हैं । अतः सच्चे गुणी का अादर करना चाहिए, धर्मान्धता के कारण किसी को नीच समझना मानवता नहीं, इसी भाव को लेखक ने कितनी चमत्कारी, रहस्यमय, लाक्षणिक और योजपूर्ण भाषा में प्रकट किया है- "जिस समय माजिक, ४२
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