अध्यापक पूर्णसिंह के निबन्ध मुलायम बनाकर आये मालूम होते हैं । और तप या धर्म की यह व्याख्या कि- "पहाड़ों पर चढ़ने से प्राणायाम हुआ करता है, समुद्र में तैरने से नेती धुलती हैं; आंधी, पानी और साधारण जीवन के ऊँच-नीच, गरमी-सरदी, गरीबी अमीरो को झेलने से तप हुआ करता है । प्राध्या- त्मिक धर्म के स्वप्नों की शोभा तभी लगती है जब आदमी अपने जीवन- का धर्म पालन करे।" कृष्ण के कर्मयोग का प्रथम सोपान ही तो है, निःसन्देह कोरी आध्यात्मिकता मृगतृष्णा है और कोरो कर्मठता अनन्त दलदल । दोनों में से एक भी स्पृहणीय नहीं, इनका उचित समन्वय ही जीवन का ठोस आधार बन सकता है । यही लेखक का उद्देश्य है । वास्तव में भारतीय संस्कृति के स्वस्थ रूप में सरदार साहब की अास्था है । नारी-समस्या का भी इन्होंने अपने ढंग से समाधान प्रस्तुत किया है । नारी और पुरुष के क्षेत्रों में ये अन्तर मानते हैं और उसके एकीकरण को गृहस्थजीवन को अशान्ति का कारण बताते हैं- "ऐसा मालूम होता है कि योरप की कन्यायें भी दिल देने के भाव- को बहुत कुछ भूल गई हैं। इसी से अलबेली भोली कुमारिकायें पारल्यामेंट के झगड़ों में पड़ना चाहती हैं, तलवार और बन्दूक लटका कर लड़ने मरने को तैयार हैं । इससे अधिक यूरप के गृहस्थ जीवन को अशान्ति का और वया सुबूत हो सकता है।" किन्तु साथ ही 'नारी की झांई परे अन्धा होत भुजंग' का सहारा ले उसको तिरस्कार की दृष्टि से देखनेवाले वैरागियों को भी ये पाखण्डी समझते हैं-"स्त्री का मुख देखना पाप है। बड़े बड़े वैराग्य के ग्रन्थ खोल, गेरुआ रंगे हम अपनी माता बहिन और कन्याओं को नग्न कर करके उनके हड्डी माँस की नस नस को गिन गिन कर तिर- स्कार करते हैं।" इनका विश्वास कि 'जब तक आर्य कन्या इस देश के घरों और दिलों पर राज्य नहीं करती तब तक इस देश में पवि- ४१
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