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आचार्य शुक्ल जहां आदर्श निबन्ध में नये नये विचारों को उद्भावना और उसके ग्रंथित तारम्य को आवश्यक समझते हैं जिसको पढ़ कर पाठको की बुद्धि उत्तेजित होकर किसी नयी विचार पद्धिती पर दौड़ पड़े और उसकी गहन विचार धारा पाठकों को मानसिक श्रमसाध्य नूतन भी आवश्यक समझते हैं। उनके भावात्मक स्थल है जिनमें उनके मानव बार बार उभर आई है। रोचकता उत्पन्न करने के लिए यह परामावश्यक है भी इसलिए निबन्ध को भाषा में हास्य व्यंग विनोद ध्विप्रवणता और लाक्षणिकता आदि का समावेश सर्वतोमुखी ही हो सकता है ।