निबन्धकार एवं कवि पूर्णसिंह लियाँ मिलकर कारीगरी के काम करने लगें तो उनकी मजदूरी की बदौलत कुबेर का महल उनके चरणों में आप ही आप आ गिरे । xxx भारतवर्ष जैसे दरिद्र देश में मनुष्य के हाथों की मजदूरी के बदले कलों से काम लेना काल का डङ्का बजाना है ।" [ 'मजदूरी और प्रेम' पृ० ६१, ६४] निबन्धकार का यह मन्तव्य बाद में हमारे यहाँ के बड़े से बड़े नेताओं की दृष्टि में भी पाया कि भारतवर्ष की दरिद्रता कुटीर-उद्योगों से ही दूर हो सकती है। आशा है कि हिन्दी-जगत् में इस पुस्तक का स्वागत होगा । आज हिन्दी देश की राष्ट्र भाषा है । पर बड़े दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि भारत के कुछ हिस्सों में इस समय भी हिन्दी का काफी विरोध हो रहा है। इसी नीति का अनुसरण पंजाब के सिख भाई भी कर रहे हैं । मुझे पूर्ण विश्वास है कि पंजाब के सिख भाई सरदार पूर्णसिंह की इस पुस्तक को मनोयोग के साथ पढ़ेंगे तो हिन्दी के प्रति जो उनके मन में विद्वेष-भावना है, भ्रममूलक सिद्ध होगी और उन्हें मालूम होगा कि हिन्दी किसी जाति विशेष की भाषा न कभी थी, न अाज ही है। सरदार जी ने सिख होकर भी हिन्दी में जिस प्रकार के उच्च कोटि के निबन्ध लिखे हैं ऐसे निबन्ध जिनकी मातृ-भाषा हिन्दी है वे भी आज तक नहीं लिख पाये। यदि सिख भाई भाषा के क्षेत्र में सरदार जी के समान हिन्दी के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट करें तो देश और राष्ट्र का महान् कल्याण होगा। इस पुस्तक को तैयार करने में मुझे हिन्दी के सुकवि भाई जयशङ्कर त्रिपाठी से काफी सहायता मिली । वे अपने हैं अतः उनके सम्बन्ध में क्या कहूँ। हिन्दी के उद्भट विद्वान् डा० हरवंश लाल शर्मा ने इस पुस्तक की पाण्डित्यपूर्ण भूमिका लिखकर पुस्तक की उपयोगिता और भी बढ़ा दी है। मेरी बड़ी इच्छा थी कि इस पुस्तक के साथ अध्यापक पूर्णसिंह की एक प्रामाणिक जीवनी दी जाय, लेकिन यह इच्छा पहले पचीस
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