निबन्धकार एवं कवि पूर्णसिंह १६७५ में ही मर चुकी थी, किन्तु पिता उस समय जोवित थे, उनकी अवस्था नब्वे वर्ष की थी। पुत्र की इस दर्दनाक बीमारी का समाचार उन्हें नहीं सुनाया गया लेकिन किसी तरह उन्हें इसकी खबर मिल गयी, तब वे इस असहनीय वेदना को न सह सके और इसी दुःख में दूसरे दिन उनकी मृत्यु हो गयी, ऐसी ही संकटपूर्ण परिस्थिति में चैत्र शुक्ल १२ संवत् १९८८ (३१ मार्च सन् १९३१) को अपने निवास स्थान देहरादून में वीणा-पाणि का यह भावुक और प्रतिभाशाली उपासक चल बसा | इस समय इनकी अवस्था ५० वर्ष की थी। पूर्णसिंह के तीन पुत्र और एक पुत्री, ये चार संतानें थीं। बड़े लड़के सरदार मदनमोहन सिंह सब-जज थे । टीक पता नहीं कि इस समय वे कहाँ रह रहे हैं ? छोटे लड़के का नाम सरदार निरलेप सिंह है। पूर्णसिंह जैसा कहते और लिखते थे, ये उसे जीवन के व्यवहार में उससे भी अधिक कर दिखानेवाले आदमियों में थे; इनकी दृष्टि, वाणी और उपस्थिति मात्र से दया और प्रेम पूर्णसिंह का बरसता था, एक बार भी जो इनके सम्पर्क में व्यक्तित्व आता था, इनके प्रेम से ऐसा भींग उठता था कि कभी इन्हें भूल नहीं सकता था । सृष्टिमात्र में इन्हें ईश्वर के प्रेम को झलक मिलती थी और जब कभी एकाग्र होकर ये उस चिन्तन में लग जाते थे तो इनकी अॉखों से प्रेमाश्रु को धारा बह चलती थी । हाथ से मजदूरी करनेवाले और धरती में परिश्रम कर कमानेवाले मजदूरों और किसानों के ऊपर इनके प्राण निछावर थे। इसको अभिव्यक्ति थोड़े हेर-फेर के साथ इन्होंने अपने निबन्धों में कई जगह को है । 'आचरण की सभ्यता' में एक जगह लिखते है-"मैं तो अपनी खेती करता हूँ; अपने हल और बैलों को प्रातःकाल उठकर प्रणाम करता हूँ; मेरा जीवन जंगल के v . सोलह
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