निबन्धकार एवं कवि पूर्णसिंह उनकी बातों में आ गये और उन्होंने सरदार पूर्णसिंह से रुपये का हिसाब माँगा । सरदार साहब को इससे बड़ी खीझ हुई और इन्होंने महाराज के सामने लाभ स्वरूप में चार लाख रुपये ले आकर पटक दिये । फिर तो इन्होंने ग्वालियर छोड़ दिया और बाद में महाराज के बहुत बुलाने पर भी न गये । पुनः इन्होंने स्वतन्त्र उद्योग करने की बात सोची । संवत् १९८३ में पंजाब के जड़ाँवाला स्थान में इन्होंने कई एकड़ जमीन ठेके पर ली और उसमें एक विशेष प्रकार की घास बोने की खेती शुरू की, जिससे तेल निकाला जाता | इस योजना में सरदार साहब ने बहुत पैसा खर्च किया किन्तु संवत् १९८५ में एक भारी बाढ़ आयी और सारी फसल पानी में डूब गयी तथा बह कर नष्ट हो गयी। अपनी योजना की यह विनाश-लीला देखकर पूर्णसिंह एक विशेष भाव में मस्त हो गये और छत पर चढ़कर आत्मानन्द में मग्न होकर नाच-नाच कर गाने लगे- भला होया मेरा चर्खा टूटा जिंद अजाबें छुट्टो । [अर्थात् अच्छा हुआ जो चर्खा टूट गया और जीवन संकट से मुक्त हुअा।] अब सरदार पूर्णसिंह अर्थ-संकट से बहुत परेशान थे और इनके ऊपर काफी ऋण हो गया था। इसी परेशानी की हालत में संवत् १६८७ ( सन् १६३०) में नौकरी ढूँढने के लिए जीवन के लखनऊ आये पर दुर्भाग्यवश इन्हें नौकरी नहीं अन्तिम दिन मिली । इनके जीवन का विकास जैसे फकीरी विचारों के साथ हुआ था वैसे ही फकीरी हालत में जीवन के अन्तिम दिन बीते । लखनऊ में नौकरी न मिलने के कारण इस महान् मेधावी कलाकार की मनोदशा कैसी थी, .
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