प्राचरण की सभ्यता उड़ाना; उसे उड़ाकर मिथ्या करना है ? समुद्रों में डोरा डालकर अमृत निकाला है । सो भी कितना ? जरा सा ! संसार की खाक छान कर आचरण का स्वर्ण हाथ आता है। क्या बैठे बिठाए भी वह मिल सकता है ? हिंदुत्रों का संबंध यदि किसी प्राचीन असभ्य जाति के साथ रहा होता तो उनके वर्तमान वंश में अधिक बलवान् श्रेणी के मनुष्म होते- तो उनमें भी ऋषि, पराक्रमी, जनरल और धीर वीर पुरुष उत्पन्न होते । आजकल तो वे उपनिषदों के ऋषियों के पवित्रता-मय प्रेम के जीवन को देख देखकर अहङ्कार में मग्न हो रहे हैं और दिन पर दिन अधो- गति की ओर जा रहे हैं। यदि वे किसी जंगली जाति की संतान होते तो उनमें भी ऋषि और बलवान् योद्धा होते । ऋषियों को पैदा करने के योग्य असभ्य पृथ्वी का बन जाना तो आसान है; परन्तु ऋषियों को अपनी उन्नति के लिये राख और पृथ्वी बनाना कठिन है; क्योंकि ऋषि तो केवल अनन्त प्रकृति पर सजते हैं; हमारी जैसी पुष्प-शय्या पर मुरझा जाते हैं । माना कि प्राचीन काल में, योरप में, सभी असभ्य थे; परन्तु आजकल तो हम असभ्य हैं। उनकी असभ्यता के ऊपर ऋषि-जीवन की उच्च सभ्यता फूल रही है और हमारे ऋषियों के जीवन के फूल की शय्या पर आजकल असभ्यता का रंग चढ़ा हुआ है । सदा ऋषि पैदा करते रहना, अर्थात् अपनी ऊँची चोटी के ऊपर इन फूलों को सदा धारण करते रहना ही जीवन के नियमों का पालन करना है। तारागणों को देखते देखते भारतवर्ष अब समुद्र में गिरा कि गिरा । एक कदम और, और धम से नीचे ! कारण इसका केवल यही है कि यह अपने अटूट स्वप्न में देखता रहा है और निश्चय करता रहा है कि मैं रोटी के बिना जी सकता हूँ; हवा में पद्मासन जमा सकता हूँ; पृथ्वी से अपना अासन टठा सकता हूँ; योगसिद्धि द्वारा n १२६
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