पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/१०३

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पवित्रता साधनों पर सारा विराट लटकाकर मैंने देखा कि अभी मेरा कमरा खाली का खाली ही था | प्रिय पाठक ! प्रथम मुझको यह प्रकट करना है, कि इस शीर्षक के नीचे अानकर यदि कई इस देश के बड़े २ आदमी भी कट जाँय, यदि कई एक वेनाम भारतनिवासियों के दिल के खिलोने आजकलके टूट जाँय, यदि कई एक वाशियाना विचार आजकल उपदेश किये के कल्पित हिन्दू धर्म के विरुद्ध युद्ध का झंडा उठावें । जारहे यदि प्राचीन ऋषियों की आज्ञा का भी कहीं २ पवित्रताके पालन न हो, यदि सोमनाथ के मुर्दी और ऋषिकेश एवं हरिद्वार के जीते लोगों के पूजा के शरीरों का एक साधारण अन्त हो जाय । कुछ भी हो, उससे कभी भी यह दृष्टि परिणाम न निकालना कि मेरा अभिप्राय स्वप्नमें भी प्राचीन ऋषियों-ब्रह्मकान्ति में रहने वालों की अाज्ञा का तिरस्कार करनेका है। या उनके उपदेश किए हुए आदर्शों के तोड़ने का है या आक्षेप लगाना स्वीकृत है या कभी भी उनके सम्मुख होकर बिना सिर झुकाए गुज़रना है या किसी प्रकार से अपने देश निवासियों के हृदय को दुखाना है या क्लेश देना है कुछ मेरा अभिप्राय है, परन्तु किसी दशा में भी यह नहीं, मेरा प्रयोजन किसी से भी नहीं । "दुनियाँ की छत पर खुश खड़ा हूं तमाशा देखता । गाहे ब गाहे देता रहा हूं बहशियों की सी सदा ॥ मेरी तो एक "बहशियों की सी सदा" है। सुनो या न सुनो इससे कुछ प्रयोजन नहीं, ईश्वर की इस लीला में आप वहां रहते हैं, मैं यहाँ रहता हूं। इसलिये क्षमा मांगकर अब मैं अपनी दृष्टि, अपने ऐसे ही माने हुए देश की ओर फेरकर जो देखता हूं वह लाधड़क कहे देता हूँ। देश में, पता नहीं, न जाने कहांसे किधरसे कैसे और क्यों १०३