साहस करता हूँ। यदि यह उपनिवेश उस नीतिपर अड़ा रहा, तो मैं जनरल स्मट्सकी, या अन्य किसीकी भी, सड़कका बेलन[१] काममें लाने (हँसी) और नेटालको गिरमिटिया प्रथा बन्द करनेपर मजबूर करने के लिए सराहना करूँगा। यह एक व्यावहारिक राजनीतिका सवाल है, मानवताका सवाल है, और ऐसा सवाल है जिसपर आप न केवल यूरोपीयोंके बीच मतैक्य पायेंगे बल्कि आपको खुद भारतीयोंसे भी हर सम्भव सहायता मिलेगी। उन व्यापारियोंकी समस्या, जो दक्षिण आफ्रिकामें बसे हुए हैं और उद्योगोंमें काम करनेवाले उन भारतीयोंकी समस्या, जो बढ़ते-बढ़ते प्रशिक्षित होने की स्थितिमें आ गये हैं, अपेक्षाकृत अधिक सरलतासे हल हो सकती है। एशियाई प्रभावका हौवा तब तिरोहित हो जायेगा।
श्री गांधीने आगे श्री बार्करके इस सुझावका जिक्र किया कि एशियाई व्यापारियोंको बाजारोंके अन्दर ही सीमित किया जाना चाहिए, और कहा कि मेरी रायमें इससे समस्या हल नहीं होगी। यदि एशियाई अपनी व्यापारिक गतिविधियोंके इस प्रकार सीमित किये जानेपर राजी नहीं हुए तो श्री बार्कर क्या निदान सुझायेंगे? मुझे विश्वास है कि दक्षिण अफ्रिकाकी जनताकी इच्छा ब्रिटिश भारतीयोंके साथ ऐसा व्यवहार करनेकी बिलकुल नहीं है, मानो वे मनुष्यसे कम दर्जेके प्राणी हों। उन्हें भारतीयोंपर विश्वास करना चाहिए। जहाँतक मताधिकारका प्रश्न है, जबतक द्वेषकी दीवार नहीं तोड़ी जाती तबतक व्यक्तिगत रूपसे मैं उसे प्राप्त करना नहीं चाहता। मेरी समझमें इस समस्याका हल इस तथ्यमें निहित है कि भारतीयोंको सबसे पहले तो मानव, और सहनागरिक समझा जाये। यूरोपीयोंको यह अपना कर्तव्य मानना चाहिए कि उन लोगोंको ऊपर उठायें, न कि नीचे गिरायें। ( करतल-ध्वनि )। दक्षिण आफ्रिकाको श्वेत दक्षिण आफ्रिका मानना उचित नहीं है। एक ईसाई राष्ट्रके हाथों जैसा व्यवहार होना चाहिए, वैसा व्यवहार एशियाइयोंके साथ यदि हो तो उनकी व्यापारिक गतिविधियोंको पृथक् करने या प्रतिबन्धित करनेका कोई प्रश्न ही नहीं उठ सकता। [समस्याका] एकमात्र हल वही है, जिसे मैंने सुझाया है।
इसके बाद अन्य वक्ताओंके भाषण हुए।
ट्रान्सवाल लीडर, २१-८-१९०८
- ↑ यहाँ इशारा ट्रान्सवाल लीडरमें प्रकाशित उस व्यंग्यचित्रकी ओर है, जिसे इस खण्डमें पृष्ठ ३२ और ७३ के सामने उद्धृत किया गया है।