१५०. पत्र: एम० चैमनेको[१]
[ जोहानिसबर्ग ]
मई २६, १९०८
उपनिवेश कार्यालय
प्रिटोरिया
प्रिय महोदय,
मुझे श्री गांधीसे मालूम हुआ है कि सरकार उस समझौतेको, जो एशियाई समुदायोंके साथ किया गया है, पूरा नहीं करना चाहती। मैंने श्री गांधी और श्री नायडूके साथ जिस पत्रपर हस्ताक्षर किये हैं उसके तथ्य मुझे पूरी तरह ज्ञात हैं। यह भली-भाँति समझाकर बताया गया था कि जो स्वेच्छया पंजीयन करा लेंगे, उनपर अधिनियम कभी लागू नहीं किया जायेगा। हमने समझौतेको स्वीकार किया, इसका एकमात्र कारण एशियाई अधिनियमको रद करवाना था, और मुझे एवं मेरे साथी कैदियोंको इसका विश्वास था; क्योंकि मैं जिस समाजका सदस्य हूँ उसकी सचाईपर मुझे भरोसा था और इसलिए यह विश्वास भी था कि लोग स्वेच्छया पंजीयनको प्रसन्नतासे स्वीकार कर लेंगे।
अब मुझे आपसे यह प्रार्थना करनी है कि आप कृपा करके मेरा स्वेच्छया पंजीयन प्रार्थना-पत्र और अन्य कागजात, जो आपके पास हैं, लौटा दें। और यदि कभी सरकार उस समझौतेको पूरा करना चाहेगी, जो उसने जनरल स्मट्सकी मारफत एशियाई समुदायोंसे किया है, तो मैं इन कागजोंको प्रसन्नतापूर्वक लौटा दूँगा। मैंने वह पत्र पढ़ा है जो श्री गांधीने आपको भेजा है और मैं उसमें व्यक्त की गई भावनाओंसे पूर्णतः सहमत हूँ।
आपका विश्वस्त,
लिअंग क्विन
अध्यक्ष
ट्रान्सवाल चीनी संघ
इंडियन ओपिनियन, ३०-५-१९०८
- ↑ हूबहू ऐसा ही एक पत्र उसी दिन श्री नायडूकी ओरसे श्री चैमनेको भेजा गया था। अनुमान है, इस पत्रका मसविदा भी गांधीजीने ही बनाया था।