गया, जिसका अभिप्राय 'नेटिव' अर्थात् वतनी था। उस अविचारपूर्ण वर्गीकरणका नतीजा यह हुआ कि भारतीयोंको आंशिक रूपमें भूखा रहना पड़ता था; और यह जब हम खुराक प्रश्नपर आयेंगे तब अधिक स्पष्ट हो जायेगा।
कोठरीका विवरण
हमें जिस कोठरीमें रखा गया था उसमें कानूनन १३ कैदी रखे जा सकते थे। इसलिए शुरूमें स्वभावतः स्थान काफी था। साढ़े पाँच बजे कोठरीमें बन्द कर दिया जाना एक अनोखी अनुभूति थी। कोठरी टीनकी चद्दरोंकी बनी हुई थी। वह काफी मजबूत थी, मगर भागने-पर उतारू कैदियोंके लिए कुछ भी नहीं थी। हवाके आने-जानेकी व्यवस्था भी शायद ठीक थी। किन्तु ऊपरकी आधी खुली दो छोटी-छोटी खिड़कियाँ और सामनेकी दीवारके सूराख आजकी जरूरतोंको पूरा नहीं करते थे, यद्यपि मुझे विश्वास दिलाया गया था कि ट्रान्सवालकी सभी जेलोंमें ये कोठरियाँ सबसे अधिक हवादार हैं। कोठरीमें बिजलीकी रोशनी थी। लेकिन उसमें एक ही बत्ती थी और वह आरामके साथ पढ़नेकी दृष्टिसे बेकार थी। रातको ८ बजे बत्ती बुझा दी जाती थी। और रातको बीच-बीच में बेतरतीब जलाई-बुझाई जाती थी। रातके खर्चके लिए एक बाल्टी पानी और टीनका आबखोरा हमें मिलता था। शौच आदिके लिए एक किश्ती में जन्तुनाशक घोलके साथ एक कोनेमें बाल्टी रख दी जाती थी। हमारे सोनेके लिए थे तीन इंची पाये लगे लकड़ीके तख्ते, दो कम्बल, एक निकम्मा तकिया और नारियलकी चटाई। हमारे माँगनेपर गवर्नरने आदेश दिया कि लिखनेके लिए एक मेज और दो बेंचें हमारी कोठरीमें रख दी जायें।
खूराक
कोठरी सवेरे ६ बजे खोल दी जाया करती थी और दिन नाश्तेके साथ शुरू होता था। पहले हफ्ते हमें १२ औंस मकईका दलिया (पुपु) दिया जाता था, जिसे हममें से अधिकांश लोग लगभग यों ही छोड़ दिया करते थे। भारतीय और चीनी मकईके दलियेके तनिक भी अभ्यस्त नहीं थे। विशेषतः जब उसमें न दूध होता था, न चीनी। पहले हफ्तेमें सादी कैद-वाले वतनी कैदियोंके लिए नीचे लिखे अनुसार खुराक निश्चित थी: रोज नाश्तेमें १२ औंस मकईका दलिया; सोमवार, बुधवार और शुक्रवारको दोपहरमें १२ औंस सेम; मंगलवार, गुरुवार, शनिवार तथा रविवारको चौथाई गैलन (१ क्वार्ट) मकईका दलिया; और रातके भोजनमें नित्य ४ औंस कुटी हुई मकई और १ औंस चर्बी। किन्तु भारतीय कैदियोंको कुटी हुई मकईके स्थानपर ४ औंस चावल और १ औंस घी मिला करता था। यह खूराक संतोषजनक नहीं थी--इस कारण नहीं कि वह सुस्वाद नहीं थी, बल्कि इसलिए कि वह एशियाई शरीरके लिए बिलकुल उपयुक्त नहीं थी। चीनियोंकी परिस्थिति और भी खराब थी, क्योंकि उन्हें खूराक पूरे तौरपर वतनियोंके अनुसार दी जाती थी और इसलिए उसमें चावल नहीं होता था। शुरूमें हम लोगोंमें से ज्यादातर लोगोंको लगभग उपवास करना पड़ा। और जब हमने अपनी स्वाभाविक अरुचिको जीत लिया तब भी इस खूराकसे हममें से कुछको कब्ज और कुछको पेचिश हो गई। फिर भी हमने तय कर लिया था कि हम इसी खूराकको लेते रहेंगे और किसी मेहरबानी या सुविधाके लिए हाथ नहीं फैलायेंगे। हमारी भावना यह थी कि इस मामलेमें गवर्नरको कदम उठाना चाहिए और देखना चाहिए कि हमें अधिक