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नौ

इस "विनम्र व्याख्याकार" को लोगोंको उकसाने और उभाड़ने वाला 'उपद्रवी व्यक्ति' बताना हास्यास्पद था। स्मट्सका अप्रकट मनोगत क्रमशः तब प्रकट हुआ जब उस मिताक्षर समझौता-पत्रकी शर्तों को कार्यान्वित करनेका वक्त आया। उपनिवेशको युद्धसे पहले छोड़कर चले जानेवाले शरणार्थी वापस आ सकते थे; जिनके पास डच प्रमाणपत्र थे वे पाँच-सौ आदमी भी बने रह सकते थे; बाहरके अन्य हजार भी आ सकते थे। स्वेच्छया पंजीयन कराने वाले व्यक्तियोंके अधिवास सम्बन्धी दावोंपर चैमने के फैसलोंके खिलाफ एशियाइयोंके अदालतोंमें जानेकी बात भी मान ली गई। लेकिन शिक्षित भारतीयोंके सवालपर जनरल स्मट्स अटल रहे। जबतक भारतीय प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमकी उनकी (स्मट्सकी) व्याख्याको स्वीकार करके भविष्यमें शिक्षित भारतीयोंके उपनिवेश-प्रवेशका दरवाजा बन्द करने के उनके इरादेको अपना समर्थन न दे दें तबतक वे एशियाई पंजीयन अधिनियमको रद करने के लिए राजी नहीं थे। २२ जूनको समझौते के टूट जानेकी घोषणा कर दी गई। और एशियाइयोंकी हालत, स्वेच्छया पंजीयनके पहले जैसी थी, उससे भी बुरी हो गई।

इस बीचमें खूनी कानूनके हौआको फिर जीवन दे दिया गया। १२ मईको चैमने महाशयने ऐलान किया कि उपनिवेशमें ९ मईके बाद दाखिल होनेवाले एशियाइयोंको उक्त कानूनके अन्तर्गत अपना पंजीयन कराना पड़ेगा। २२ मईको स्मट्सने इस बातकी पुष्टि कर दी कि यह कानून विधि-पुस्तिकामें कायम रहेगा और ७ जुलाईको चैमनेने चेतावनी दी कि एशियाई व्यापारियोंको इस अधिनियमकी शौर्तोका पालन करना होगा और परवाना (लाइसेन्स) पानेकी अपनी अर्जियोंपर अँगूठोंकी छाप लगानी होगी। ऐसी हालतमें सत्याग्रह पुनः आरम्भ हो गया। जेल जानेका ऐसा उपाय नियोजित किया गया जिससे समाजका प्रत्येक सदस्य, जो इसके लिए राजी हो, स्वेच्छापूर्वक कष्ट-सहनकी कसौटीपर चढ़े, ताकि इस कष्टसहनके द्वारा समाजकी सच्ची आवश्यकताओंकी परीक्षा हो जाये और उनका माप भी मिल जाये। "कलमुँहों" (ब्लैकलेग्स) तकसे अपना योगदान देने के लिए कहा गया, ताकि उन्हें लगे कि समाज द्वारा आयोजित इस बलिदान-यज्ञमें वे भी शामिल हैं और वे भी उसका पावन प्रभाव अनुभव कर सकें। स्वेच्छया पंजीयन करानेवाले उन व्यापारियोंने, जिन्हें ३१ दिसम्बर, १९०८ तक के परवाने मिले हुए थे, अधिकारियोंको अपने परवाने दिखाने से इनकार कर दिया और वे गिरफ्तार हो गये। जिन व्यापारियोंके परवाने ३० जूनको खत्म हो गये थे उन्होंने परवाना फिरसे पानेको अपनी अर्जियोंपर अँगूठेकी छाप लगानेसे इनकार कर दिया। ईसपमियाँ और दूसरे प्रतिष्ठित भारतीयोंने गिरफ्तार होने के लिए बिना परवानेके फेरी लगाना शुरू करके इस मामलेमें पहल की। दूसरे कुछ लोगोंने उपनिवेशकी सीमाके बाहर जाकर दुबारा प्रवेश करते समय, कानूनकी अवज्ञा करने के लिए शिनाख्त पेश करने से इनकार कर दिया। और अन्त में जब यूरोपीय मध्यस्थोंकी कोशिश विफल सिद्ध हुई और समझौतेकी वार्ता टूट गई तो एशियाइयोंने १६ और २३ अगस्तकी विशाल सभाओंमें अपने स्वेच्छया पंजीयन प्रमाणपत्रोंको जला दिया और उन्हें अमान्य करार दिया। पंजीयनके बन्धनसे सामुदायिक मुक्तिके इस कार्य में व्यक्त प्रभावशाली एकताने प्रत्यक्ष प्रमाण देकर यह सिद्ध कर दिया कि एशियाई पंजीयन अधिनियमके खिलाफ चलाया गया विरोध-आन्दोलन "बनावटी" नहीं था।

सत्याग्रहके प्रयोगमें गांधीजी कभी आवेश और तर्कका अतिरेक नहीं होने देते। परिस्थितियोंपर और आन्दोलनके प्रयोजनपर उनका ध्यान हमेशा बना रहता है। उदाहरणके