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२८ दिसम्बर, १९०७ को गांधीजीको ४८ घंटोंके अन्दर उपनिवेश छोड़कर चले जानेकी सजा दी गई। कारण, उन्होंने 'खूनी' एशियाई पंजीयनके अधीन अपना पंजीयन कराने से इनकार कर दिया था। इस खण्डकी अन्य घटनाओंकी ही तरह भारतीयोंके इस "सरगना" को दी गई इस सजामें भी कोई आकस्मिकता नहीं थी। प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम (इमिग्रैंट्स रिस्ट्रिक्शन ऐक्ट) के अन्तर्गत, जिसके लिए बड़ी होशियारीसे कामचलाऊ शाही स्वीकृति प्राप्त कर ली गई थी, स्मट्स पहले से ही देश-निकालेका दण्ड देनेके अधिकारसे सुसज्जित हो गये थे। यह अधिकार ट्रान्सवालमें अंग्रेजोंकी किसी सरकारको कभी प्राप्त नहीं रहा था। इसके सिवा, एशियाई अधिनियमसे जुड़ जानेपर इस अधिनियमका उपयोग शिक्षित भारतीयोंको उपनिवेशके अन्दर न आने देने के लिए किया जा सकता था। जनरल स्मट्स शिक्षित भारतीयोंको सरकार-विरोधी आन्दोलनकी जड़ मानते थे। उनके शब्दों और कार्यों में बाहरी तौरपर कई जगह जो विरोध पाया जाता है उसका निराकरण यह मान लेनेपर हो जाता है कि वे निरपवाद रूपसे इस मान्यतापर चल रहे थे कि सत्याग्रहकी हलचल विरोधकी एक कृत्रिम हलचल है, जिसके पीछे जनसमाजकी सच्ची परेशानियोंका ठोस आधार नहीं है। उनका खयाल था कि विरोध-आन्दोलनके नेताओंको निष्कासित कर देना ही भारतीय समस्याका अन्तिम हल है। और यदि भारतीयोंको यह इलाज स्वीकार करने के लिए तैयार किया जा सकता, तो जनरल स्मट्स उनका मन समझाने के लिए कुछ टुकड़े उन्हें खुशीसे दे देते। रिचमंडमें उन्होंने यह कहा ही था कि समझौता उपनिवेशकी एशियाई आबादीको घटानेकी दृष्टि से ही किया गया है। (परिशिष्ट―८)। घटनाचक्रको इस दृष्टिसे देखा जाये तो समझमें आ जाता है कि जनरल स्मट्सका मंशा हमेशा एक ही था। लेकिन शिक्षित भारतीयोंका सवाल उग्र रूपसे २२ जून, १९०८ तक नहीं उठा। इन पृष्ठोंको पढ़नेपर उपनिवेश-सचिव जनरल स्मट्सकी जो तसवीर उभर कर सामने आती है वह ऐसे आदमीकी है जो बहुत सजग और सावधान था, जिसका अपने उद्देश्यके बारेमें दृढ़ आग्रह था और जो ऐसा चुप रहता था कि लोगोंको उसके असल इरादेके बारेमें धोखा हो जाता था। सजग और सावधान―क्योंकि वह हाल ही में सत्तारूढ़ हुआ था और निश्चयके साथ यह नहीं जानता था कि वह शाही सरकार, जिसने कमसे-कम प्रत्यक्षतः तो भारतीयोंके हितोंकी रक्षाके लिए लड़ाई लड़ी थी, कब क्या रुख अख्त्यार करेगी। विविध समुदायोंसे बने हुए समाजमें राजनीतिके क्षेत्रमें कैसे खतरोंका सामना करना पड़ता है, इस बातको वह जानता था और इसलिए उसे अनेक प्रतिस्पर्धी दावों और हितोंके बीचमें अपना रास्ता बड़ी सावधानीसे खोजना था। उसकी चुप्पी एक ऐसे आदमीकी चुप्पी थी जो दृढ़ निश्चयपर पहुँच गया है और जिसका वह निश्चय कार्यके द्वारा ही प्रकट होता है। अपने स्वीकृत उद्देश्यके विषयमें उसकी दृढ़ताका प्रमाण तो इस खण्डमें जगह-जगह मिलता है।

१० जनवरीको गांधीजी, थम्बी नायडू और लिअंग क्विनको अदालतके एक पूर्ववर्ती आदेशका उल्लंघन करने के अपराधमें दो माहकी सजा हुई और उनके पीछे अनेक बहादुर व्यक्ति जेलमें जा पहुँचे। जेलमें गांधीजीने जेल-जीवनकी असुविधाओं और राजनीतिक चिन्ताओंके बीच कार्लाइल और रस्किनको पुस्तकें पढ़ीं; उन्होंने अपने व्यक्तित्वके एक अंशको सुकरातमें देखा। सुकरातका जीवन, जैसा कि हम जानते हैं, भ्राँतियों और पूर्वग्रहोंसे जकड़े हुए उसके नगरके तत्कालीन समाजके खिलाफ एक लम्बा सत्याग्रह था। २१ जनवरीको