दूसरोंका इनकार कौन सुनेगा? ट्रान्सवालके भारतीयोंने तो औरोंका सत्यानाश कर दिया।" इसका उत्तर कैसे दें?
सम्पादक: यदि बाहरवाले इस प्रकारका प्रश्न करें तो वह बहुत गलत कहलायेगा। उन लोगोंको तो हमारा संघर्ष समझना चाहिए था। क्योंकि सोचिए, अगर ट्रान्सवालमें भारतीय स्वेच्छापूर्वक अँगुलियोंकी छाप देते हैं तो वे अन्यत्र अनिवार्य कैसे हो जायेंगी? क्या बाहरवाले चूड़ियाँ पहनते हैं जो वे अनिवार्यतः अँगुलियोंकी छाप देंगे? सही बात तो यह है कि कानूनके विरोधमें जबर्दस्त संघर्ष करके पूरे दक्षिण आफ्रिकामें ही नहीं, सारी दुनियामें हमने निर्बल मनुष्योंकी सहायता की है और उन्हें सबल बनाया है।
'मर्क्युरी' कहता है कि इस लड़ाईका सही अर्थ यह है कि जो लोग मताधिकार-विहीन हैं उन्हें अधिकार प्राप्त हो गया, कोई सरकार इसके बाद काले मनुष्योंके विरुद्ध उनकी राय लिए बिना कानून नहीं बना पायेगी। सभी उपनिवेशोंको बड़ी सरकारके हितका विचार करना पड़ेगा।
यह बात शब्दशः सही है। भारतीय जनता बिना मताधिकारके थी; वह अब मताधिकार-युक्त हो गई है। इसलिए अन्य उपनिवेशोंके सम्बन्धमें अँगुलियोंकी चर्चा करना तो खीर-पूरी छोड़कर पापड़की चिन्तामें पड़ने जैसा हास्यास्पद होगा।
हम यह भी बताये देते हैं कि देर-सबेर सभी जगहोंपर दस अँगुलियोंका नियम लागू होना सम्भव है। क्योंकि मनुष्यकी पहचान करनेके लिए वह उत्तमसे-उत्तम शास्त्रीय उपाय है; और इससे किसीके धर्ममें बाधा नहीं पड़ती। नेटालमें गिरमिटियोंके लिए वह १९०३ में प्रारम्भ हुआ। ट्रान्सवालमें बहुत-से गोरे लोगोंपर वह लागू होता है। इसलिए इस प्रकार स्वेच्छासे अँगुलियोंकी छाप देनेमें कुछ भी बुराई नहीं है; बल्कि उससे होनेवाले लाभ प्राप्त किये जा सकेंगे।
फिर यह भी विचार करना है कि केप, डेलागोआ-बे आदि स्थानोंमें तो फोटोग्राफ वगैरह लिये जाते हैं। इसके मुकाबले हम अँगुलियोंकी छाप हजार दर्जा बेहतर समझते हैं।[१] याद रखें कि ट्रान्सवालमें अँगुलियाँ केवल आवेदनपत्रमें आयेंगी, प्रमाणपत्रमें नहीं।
वर्ग-भेद क्यों किया?
पाठक: अब अँगुलियोंकी बात नहीं करूँगा; लेकिन मुझे कहना चाहिए कि आजतक 'इंडियन ओपिनियन' वर्ग-भेदके विरुद्ध रहा है; फिर अब वर्ग-भेदके पक्षमें वह क्यों बोलता है, यह समझमें नहीं आता। जब प्रिटोरियाके मेमन लोगोंने अर्जी दी थी कि सुप्रतिष्ठित लोगोंको अँगुलियोंकी छाप नहीं देनी चाहिए, और लोग भले ही दें, तब आपने बहुत कटु लिखा था। यह मैं अबतक भूला नहीं हूँ। अब आप कह रहे हैं कि वर्ग रहने में हर्ज नहीं है। क्या आप यह परस्पर-विरोधी कथन समझायेंगे?
सम्पादक: आपने यह प्रश्न ठीक किया। वास्तवमें यह माँग अगर श्री गांधी करते तो विरोध होता। हुआ तो लगभग यह है कि खुद सरकारने इस प्रकार आवेदनपत्र लिखनेका प्रस्ताव किया है। सरकार जो बात अधिकारके रूपमें देनेको तत्पर थी उसे छोड़ देना अनुचित कहलाता। हम प्रतिष्ठित लोगोंके लिए पृथक् अधिकार माँगें, और सरकार खुद ही दे, इन दोनोंमें बड़ा अन्तर है।
- ↑ देखिए खण्ड ६, पृष्ठ ३६६ और ३६९।