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भूमिका

इस खण्ड में सन् १९०८ के पहले आठ महीनों का समावेश हुआ है। दक्षिण आफ्रिकी सरकार की ज्यादतियों के खिलाफ प्रवासी भारतीय जनता के विरोध का स्वर इसके प्रारम्भिक पृष्ठों में ही मुखर हो उठा है और इसका अन्त भी इसी स्वर में होता है। ट्रान्सवाल को स्वशासन का अधिकार मिलने और डच पार्टी के सत्तारूढ़ होने से काफी पहले ही भारतीयों ने सितम्बर, १९०६ की एक आम सभा में शानदार सर्वसम्मति से यह घोषणा कर दी थी कि वे दक्षिण आफ्रिका की गोरी प्रजा के बीच सदा पास लेकर चलने वाले लोगों की तिरस्कृत जिन्दगी―जिसकी तुलना प्राचीन स्पार्टा-निवासियों के बीच रहनेवाले भूमि-दासों की जिन्दगी से की जा सकती है―बिताना कभी मंजूर न करेंगे। इस तरह, यह खण्ड गांधीजी के प्रथम सत्याग्रह-युद्ध का चित्र पेश करता है और उसे पढ़ते हुए पाठक के मन में सबसे पहला सवाल यह उठता है कि सरकार और दक्षिण आफ्रिका के एशियाइयों के बीच इतने आग्रह और उत्साह से जो समझौता हुआ था वह आखिर विफल क्यों हो गया? उस समझौते ने जिन आशाओंको जन्म दिया था उन्हें पूरा नहीं किया और नतीजा हुआ―एशियाई पासों की होली की नाटकीय घटना जिसकी चर्चा से यह खण्ड समाप्त होता है। यह घटना मताधिकार से वंचित समाज द्वारा सरकारी नीति के शान्तिमय विरोध का करुण प्रतीक है। लॉर्ड ऐम्टहिलने भारतीयों के लिए "साम्राज्य के साझेदारों" की स्थिति को कल्पना की थी। भारतीय अभी उससे बहुत दूर थे। गांधीजी की दृष्टि में जनरल स्मट्स ने समझौते को भंग किया था और इसके कारण उनके दिल को बहुत धक्का पहुँचा था। फिर भी इस खण्ड में हम उन्हें सत्य और न्याय तथा समझौते की इच्छा से प्रेरित ऐसी आवाज में बोलते हुए सुनते हैं जिसमें आशा का स्पन्दन कायम है। इस खण्ड के अन्त तक हम उन्हें एलगिन और मॉर्ले आदि "नये उदारपंथियों" के खिलाफ ऐम्टहिल, चैम्बरलेन और रोड्स आदि "पुराने उदारपंथियों" से अपील करते हुए पाते हैं। नये उदारपंथी, उदार विचारधारा को सिद्धान्त के बजाय पद्धति अधिक मानते थे और इसलिए स्वशासी उपनिवेशों की आजादी के प्रति अपने मिथ्या आग्रह के कारण उपनिवेशों के घटना-प्रवाह में हस्तक्षेप करने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन पुराने उदारपंथियों के लिए साम्राज्यवाद अभीतक शासित जातियों को शासकों के स्तर तक ऊँचा उठाने का उदात्त ध्येय और कर्तव्य था। इस विचारधारा में गांधीजी को अब भी मनुष्य-जाति के विकास और प्रगति की आशा दिखाई पड़ती थी। बैंथम के आशय के सम्बन्ध में लोगों की नासमझी के कारण और उसकी 'अधिकतम लोगों की अधिकतम भलाई' के सिद्धान्त के कारण―जो कि प्रजातीय अल्पसंख्यकों के हित के खिलाफ जाता था―उदारपंथी विचारधारा विकृत हो गई थी। दक्षिण आफ्रिका में उसका परिणाम सामान्य जनता के दुराग्रह का मान्यता और जनतन्त्र की ऐसी शासन-प्रणाली में आया था जिसमें बहु- संख्यकों की राय का पालन आँख मूँदकर किया जाता है। इसलिए श्री पोलक के हृदयस्पर्शी शब्दों में कहा जाये तो 'सच्चा साम्राज्यवाद क्या है' (पृष्ठ १४४) यह बताने और उदार- पंथी विचारधारा का तेज नष्ट हो गया है, यह सिद्ध करने का काम इस विचारधारा में विश्वास रखनेवाले एक व्यक्ति को करना पड़ा।