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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय

दिसम्बरका अवसर हम भव्य मानते हैं। डरपोकोंको भी धन्यवाद देते हैं। क्योंकि, डरते रहनेपर भी देशके हितका खयाल करके उन्होंने पंजीयन करवाकर अपने नामपर बट्टा नहीं लगने दिया।

ऐसा हम किस हेतुसे लिख रहे हैं? भारतीय समाजपर ऐसा कौन-सा भारी काम आ पड़ा है? कानूनका विरोध क्यों कर रहे हैं? अब इन प्रश्नोंके उत्तरोंका विचार करें। बहुतेरे लोगोंका खयाल है कि लड़ाई इसलिए चल रही है कि हमें दस अँगुलियोंकी निशानी देने में आपत्ति है। कुछ लोगोंकी आपत्तिका केवल इसीमें समावेश हो जाता है कि उन्हें माँ और स्त्रीका नाम देना पड़ता है। फिर, कुछ लोगोंका कहना है कि पुलिस घर-घरमें जाँच करेगी यह तकलीफकी बात है। यह भी सच है कि ये सारी बातें अपमानजनक हैं। दस अँगुलियोंकी निशानी केवल चोर ही देते हैं। अपमान करनेके हेतु पवित्र माँका नाम लेनेके लिए कहनेपर कमरसे तलवारें निकल पड़ी हैं। संदिग्ध समझकर पुलिसने किसीसे पास माँगा तो अपमानसे जले-भुने उस मनुष्यका घूंसा खाकर पुलिसको धूल चाटनी पड़ी है। इतनेपर भी यदि कोई कर्तव्य रूपसे नहीं बल्कि विवेकपूर्वक अँगुलियोंकी निशानी देनेके लिए कहे और हम दें तो उसमें विशेष दुःख नहीं है। जिस प्रकार माला फेरकर ईश्वर—खुदाका नाम हम लेते हैं उसी प्रकार खुशी-खुशी हम माँका नाम लेंगे। मतलब यह कि उपर्युक्त बातें अपमान करनेके इरादेसे दाखिलकी गई हैं, इसीलिए आपत्तिजनक हैं। मूलतः उनसे हमें आपत्ति नहीं है। सभी पीले मनुष्य पीलियाके रोगी नहीं होते। परन्तु साधारणतया अस्थिपंजर जैसे शरीरमें हम पीलापन देखेंगे तब हम मान लेंगे—उस शरीरमें पीलियाका रोग है। वैद्य पीलेपनका इलाज नहीं करेगा, बल्कि पीलिया रोगका इलाज करेगा।

तब कानूनमें पीलिया कहाँ है, यह देखना है। पीलापन देख लिया। पीलिया तो यह है कि इस कानूनको बनाकर गोरे लोग यह बताना चाहते हैं कि एशियाई लोग मनुष्य नहीं, पशु हैं, स्वतन्त्र नहीं, गुलाम हैं; गोरोंकी बराबरीके नहीं, उनसे हलके दर्जेके हैं, उनपर जो कुछ हो वह सहन करनेके लिए जन्मे हैं; उन्हें सिर उठानेका—विरोध करनेका अधिकार नहीं है; वे मर्द नहीं, नामर्द हैं। अँगुलियोंकी निशानी आदि लक्षणोंसे यह स्थिति—पीलिया—प्रकट हो रही है। कानून जो-कुछ करवाना चाहता है वह जबरदस्ती करवाना चाहता है। वह भारतीयोंको, जो कि साहूकार हैं, चोर ठहराता है। हमें चोर ठहराकर तथा हमारे बच्चोंको भी चोर मान कर उन्हें अशोभनीय तरीकेसे परेशान करता है और उनमें डर पैदा करता है। हमारे देशमें बालकोंको जैसे "हौवा आया" यह कहकर बचपनसे डरा देते हैं, उसी प्रकार उन्हें यहाँ भी डरानेके लिए यह कानून है। हमसे कोई पूछे कि यह सब कानूनकी किस धारामें है तो वह बताना कठिन हो जायेगा। धतूरेके फूल देखकर कोई नहीं बता सकता कि उसमें जहर किस जगह है। उसकी परीक्षा जैसे खानेपर होती है उसी प्रकार इस कानूनको समझा जाये। इस सारे कानूनको पढ़नेवाला और समझनेवाला मर्द हो तो उसके रोंगटे खड़े हुए बिना नहीं रहेंगे। यह भारतीयोंका पानी उतार देता है। और बिना पानीकी तलवार जैसे निकम्मी हो जाती है वैसे ही इस कानूनको स्वीकार करनेवाला भारतीय मर्दकी श्रेणीसे निकल जाता है।

अब कोई कहेगा कि धर्म-सम्बन्धी आपत्ति क्या है? यह तुर्कीके मुसलमानोंपर लागू होता है और ईसाइयों तथा यहूदियोंको छोड़ देता है। इस बातको हम भले छोड़ दें, परन्तु यह कानून यदि हमारा अपमान करनेवाला हो और हमें जानवरकी भाँति रखनेवाला हो तो हम यह सवाल करते हैं कि क्या जानवर कभी खुदाको पहचानता है? क्या वह धर्म समझता है?