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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भारतीयोंमें भी थोड़े-बहुत नामर्द

यदि जुल्मपर जुल्म करके परेशान किया जाये तो फिर भारतीयों में भी थोड़े-बहुत नामर्द निकल ही आयेंगे। ऐसा तो गोरे हों या काले, सबमें होता है। जिस कानूनको स्वयं ही अपमानजनक और अत्याचारपूर्ण मानते हैं उसके सामने डरके मारे यदि ४० या ५० भारतीय झुक जाते हैं तो इससे हमें कुछ भी नहीं लगता। हमें जो बात खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य लगती है, सो यह है कि डर जानेवालोंकी अपेक्षा आत्मसम्मानके हेतु देश छोड़कर जानेवालोंकी संख्या बहुत अधिक है। ट्रान्सवाल सरकारने जो धंधा अख्तियार किया है उसमें नैतिकता नहीं है। ऐसे कारोबारको मूर्खतापूर्ण कहना चाहिए। जिन ब्रिटिश भारतीयोंने कानूनका विरोध किया है उनको ट्रान्सवालमें बसनेका पूरा वैधानिक अधिकार है, जिसमें कोई सन्देह नहीं। यह हक उन्हें इसलिए प्राप्त हुआ है कि वे लम्बे समयसे यहाँ रहते आ रहे हैं। सरकारने निश्चय किया है कि यदि वे अब आगे और भी उस अधिकारका उपभोग करना चाहते हों तो उन्हें इस कानूनके सामने झुकना होगा -एक ऐसे कानूनके सामने जो उन्हें आवारे और लफंगेका खिताब देता है। हमें तो नहीं लगता कि सरकारको ऐसा करनेका जरा भी अधिकार है। सब जानते हैं कि ट्रान्सवालमें अँगुलियोंकी छाप लेकर पंजीयन करनेकी व्यवस्था केवल कैदियों और चीनी गिरमिटियोंपर ही लागू होती है। किसीको शायद यह लगे कि भारतीय भी हलके दर्जेके लोग हैं, इसलिए उनपर भी यह पंजीयन लागू किया जा सकता है । मान लें कि वे हलके दर्जेके हैं, तो क्या अपना ऊँचा दर्जा दिखानेके लिए उनपर जुल्म किया जाये?

भारतीय निम्न कोटिके हैं?

परन्तु कौन कहता है कि भारतीय हलके दर्जेके है? हमारी भारतीय सेनामें ऐसी टुकड़ियाँ हैं जो गोरी सेनाकी चुनिंदासे चुनिंदा टुकड़ीके समकक्ष मानी जाती हैं। हमारे विश्वविद्यालयोंके श्रेष्ठ-श्रेष्ठ पारितोषिकोंको भारतीय विद्यार्थी बार-बार जीतते हैं। तत्त्वज्ञान और ऐसी ही अन्य विद्याओं में एशियाइयोंके सामने यूरोपीय केवल बच्चोंके समान हैं। यदि व्यापार-वाणिज्यकी योग्यताके आधारपर परीक्षा करें तो कुल मिलाकर स्पर्धामें एशियाईको गोरा कभी हरा नहीं सकता। ट्रान्सवालमें जिस ढंगसे भारतीयोंको रखा जा रहा है उससे हम निःसन्देह कह सकते हैं कि उसका यथार्थ कारण व्यापारिक प्रतिस्पर्धा है। हाँ, युद्ध-विद्यामें निःसन्देह गोरे लोग एशियाइयोंसे बढ़कर हैं।

यह विशेषता कितने दिन निभेगी?

परन्तु यह विशेषता कितने दिन निभेगी, इस विषयमें गोरे राजनीतिज्ञ बड़े चिन्तित हैं। सम्भव है कि एशियाके असंख्य लोग अपनी शताब्दियोंकी निद्रासे कुछ ही वर्षों जाग जायेंगे और पश्चिमके लोगोंको पछाड़ देंगे। पहले भी एक नहीं, कई बार वे पश्चिमको पछाड़ चुके हैं। वे जगे नहीं, यह अलग बात है। किन्तु उन्हें जगानेके लिए