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३९१. तार : जे॰ एस॰ वायलीको[१]

[जोहानिसबर्ग
मार्च २२, १९०७]

[जे॰ एस॰ वायली
डर्बन]

दाउद तथा अन्य व्यक्तियोंको आपकी सलाहसे मैं पूरी तरह एकमत हूँ।

[गांधी]

[अंग्रेजीसे]
नेटाल मर्क्युरी, २७-३-१९०७
 

३९२. एशियाई कानून संशोधन अध्यादेश

एशियाई कानून संशोधन अध्यादेशको,[२] १८८५ के कानून ३ का संशोधन करनेवाले विधेयकके मसविदेके रूपमें ट्रान्सवाल विधानसभामें पुनः पेश किया गया है और वहाँ उसका तीसरा वाचन स्वीकृत भी हो चुका है। कुछ लफ्जी तब्दीलियोंको छोड़कर यह मूल अध्यादेशका ठीक प्रतिरूप ही है। ट्रान्सवालमें एशियाई-विरोधी आन्दोलनके सूत्रधारोंको हम बधाई देते हैं कि वे इस मामलेको एक बार फिर जोर-शोरसे आगे लाने में कामयाब हो गये। साथ ही हम उनकी अद्भुत क्रियाशीलतापर भी उनको बधाई देते हैं। ब्रिटिश भारतीयोंको उनकी इस क्रियाशीलताका अनुकरण करना चाहिए। हम खुले दिलसे मंजूर करते हैं कि हम इस विधेयक के मसविदेका ट्रान्सवालमें रहनेवाले भारतवासियोंके लिए चुनौतीके रूपमें स्वागत करते हैं। उनको यह दिखला देना है कि वे किस धातुके बने हैं। अब कोई नई दलील देनेकी जरूरत नहीं है। कोई और तर्क बाकी बचा ही नहीं। विधेयकके मसविदेसे साम्राज्य सरकारकी भारतीयोंकी रक्षा करनेकी शक्तिकी, और इस बातकी भी परीक्षा हो

  1. प्रस्तावित वेनगुएला रेलमार्गके निर्माणमें काम करनेके लिए दो हजार भारतीय लोबिटोकी खाड़ी जानेके लिए भारत सरकार की मंजूरीकी प्रतीक्षा कर रहे थे। रेलमार्गके ठेकेदार नेटाल सरकारको वचन दे चुके थे कि भारतीय श्रमिकोंके साथ अच्छा व्यवहार किया जायेगा और काम समाप्त हो जाने के बाद वे नेटाल अथवा भारत वापस भेज दिये जायेंगे। नेटाल भारतीय कांग्रेसके अधिकारी मार्च २२ को होनेवाली सार्वजनिक सभामें भाग लेने के लिए आये। उस समय श्री वायलीने गांधीजीके नाम यह तार जोहानिसबर्ग भेजा : "नेटालसे लोबिटो खाड़ी जानेके लिए उत्सुक किन्तु जानेमें असमर्थ भारतीयोंकी आज अपराक्षमें सार्वजनिक सभा होगी। दाउद मुहम्मद, पीरन उमर और आँगलिया मेरे पास यह जाननेके लिए आये हैं कि, अगर लेना ही हो तो, वे कैसा रख लें। कुछ कहने या करनेके पहले मैं आपकी राय जानना चाहता हूँ। मेरी सलाह है कि फिलहाल सभामें किसी प्रकारका हस्तक्षेप न करें। अलबत्ता वहाँ जो कुछ हो उसे उपस्थित रहकर देख सकते हैं। कृपया तारसे शीघ्र जवाब दें।" इसपर गांधीजीने उपर्युक्त तार दिया। उसी सभामें भारत सरकारकी अनुकूलता की घोषणा की गई।
  2. नया कानून 'एशियाई पंजीयन अधिनियम' कहा जाता था, किन्तु गांधीजी उसका उल्लेख 'अध्यादेश' कह कर ही करते रहे।