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नीतिधर्म अथवा धर्मनीति—४

रहे यह क्वचित् ही होता है। इसलिए अक्सर वह स्वार्थकी दृष्टिसे देखनेके कारण अनीतिको नीति कह देता है। ऐसा समय तो अभी आनेको है जब मनुष्य स्वार्थके विचार छोड़कर केवल नीति-विचारकी ओर ही ध्यान देगा। स्वयं नीतिकी शिक्षा ही अभी शैशव अवस्था में है। बेकन[१] और डार्विनसे पूर्व जो स्थिति शास्त्रकी थी वही आज नीतिकी है। सत्य क्या है इसे जाननेकी मनुष्योंमें जिज्ञासा तो थी, किन्तु नैतिकताके सम्बन्धमें जाननेकी अपेक्षा वे पृथ्वी आदिके भौतिक नियम जानने में व्यस्त थे। ऐसा कौन-सा विद्वान हमें दिखाई देता है, जिसने निष्ठापूर्वक दुःख उठाकर और अपने पूर्वग्रहोंको छोड़कर सच्ची नीतिकी शोध में अपना जीवन बिताया हो? प्रकृतिकी खोज करनेवाले लोगोंके समान ही जब लोग नीतिकी खोज में तल्लीन हो जायेंगे तब, हम मानते हैं, नीति-सम्बन्धी विचार संग्रहीत किये जा सकेंगे। विज्ञानके विचारोंके विषयमें मनुष्योंमें आज भी जितना मतभेद है उतना नीतिके सम्बन्ध में होना सम्भव नहीं है। फिर भी सम्भव है कि नीतिके नियमोंके सम्बन्धमें कुछ समय तक हम एकमत न हों। इसका यह अर्थ नहीं कि सच-झूठका भेद समझ में नहीं आ सकता।

तब हमने देख लिया कि मनुष्योंकी धारणाओं और इच्छाओंसे परे नीतिकी ऐसी कुछ व्यवस्था है, जिसे हम विधान या कायदा कह सकेंगे। राज्य-कारोबारमें भी जब हम विधान देखते हैं, तब नीतिका भी विधान क्यों नहीं हो सकता, भले वह मानव लिखित न हो; और मानव लिखित होना भी नहीं चाहिए। और यदि हम मान लें कि नीतिका भी कोई विधान है तो जिस प्रकार हमें राज्यके नियमोंके मातहत रहना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार नीति के विधानके मातहत रहना हमारा कर्तव्य है। नीतिका विधान राज्य या व्यावसायिक विधानसे भिन्न तथा श्रेष्ठ है। व्यावसायिक विधानका पालन न करनेसे मैं गरीब ही बना रहूँ तो क्या हुआ? राज्यके विधानके मातहत न रहनेपर शासक मुझसे नाराज हों तो भी क्या हुआ? परन्तु कोई यह नहीं कह सकेगा, और न मैं ही कह सकूंगा कि मैं झूठ बोलूँ या सच, इससे क्या बिगड़ा।

इस प्रकार नीतिके नियमों और दुनियादारीके नियमोंमें बड़ा भेद है, क्योंकि नीतिका बास हमारे हृदयमें है। अनीतिपर चलनेवाला मनुष्य भी अपनी अनीति स्वीकार करेगा। झूठ कभी सत्य नहीं हो सकता। जहाँकी प्रजा बहुत दुष्ट होगी वहाँ लोग यद्यपि नीति-पालन नहीं करते होंगे तो भी नीतिके निर्वाहका पाखण्ड तो करेंगे ही; अर्थात् इतना तो उन्हें भी स्वीकार करना होगा कि नीतिका निर्वाह किया जाना चाहिए। नीतिकी ऐसी महिमा है। इस नीति में या इसके निर्वाहमें लोक-परम्परा या लोकमतकी परवाह नहीं रहती। लोकमत या रीति-रिवाज जहाँतक नीतिके विधानका अनुसरण करते दिखाई दें वहींतक वे नीतिमान व्यक्ति के लिए बन्धनकारक होंगे।

नीतिका यह विधान कहाँसे आया? इसे राजा नहीं बनाते; क्योंकि भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न कानून देखने में आते हैं। सुकरात अपने जमाने में जिस नीतिका पालन करते थे उसके विरुद्ध अनेक लोग थे, तो भी सारा संसार मानता है कि उनकी नीति ही सनातन थी, और वह सर्वदा रहनेवाली है। अंग्रेज कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग कह गया है कि यदि कोई शैतान

  1. रोजर बेकन (१२१४-१२९४) एक ईसाई संन्यासी, जिन्होंने सर्वप्रथम विज्ञानके क्षेत्रमें प्रयोग के महत्त्वपर जोर दिया था।