कि एक स्वशासनभोगी उपनिवेश भी, जबतक उसे साम्राज्यका एक अंग रहना पसन्द है, इस हद तक नहीं जा सकता कि वह उन लोगोंको जलील करे या उनके साथ दुर्व्यवहार करे, जो उसे स्वशासनकी सत्ता प्राप्त होनेपर अपनी सीमामें बसे हुए मिलते हैं।
दूसरे, आप "तर्कके सिद्धान्त" को (आपने यही नाम देना मुनासिब समझा हैं) 'उच्च स्तरीय सुविधा' के सिद्धान्तपर बलिदान करनेकी जरूरतकी बात कहते हैं। मेरे खयाल से "सुविधा" की वेदीपर तर्कका इतना बलिदान नहीं होगा जितना नैतिकताका। लेकिन मान लीजिये कि तर्क या नैतिकताके सिद्धान्तका इस तरह बलिदान किया जा सकता है, तो "उच्च स्तरीय सुविधा" है क्या? यह अकारण लाखों भारतीयोंके जैसे एक उत्कृष्ट भावना- शील और वफादार समाजकी कोमल भावनाओंको आघात पहुँचाना है या लॉर्ड मिलनरकी भाषामें पहरेकी मीनारपर बैठे हुए और सम्पूर्ण क्षितिजको सामने देखते हुए साम्राज्यीय पहरेदारकी तरफसे एक विवेकरहित और प्रमाणशून्य रंग-द्वेषकी रक्षा करनेसे दृढ़तापूर्वक इनकार करना है?
आपने प्रसंगवश वैरीनिगिंगकी सन्धिका[१] भी जिक्र किया है। मैं इस हकीकतकी तरफ आपका ध्यान दिला दूं कि यदि उसमें "वतनी" संज्ञाके अन्तर्गत ब्रिटिश भारतीयोंकी भी गिनती की गई है तो भी उससे सिर्फ "वतनी लोगों" को राजनीतिक मताधिकार देनेका विचार उपनिवेशमें जिम्मेदार हुकूमत कायम होनेके बाद तक स्थगित होता है। तथापि, ब्रिटिश भारतीयोंने असन्दिग्ध भाषामें कह दिया है कि कमसे कम वर्तमान स्थितिमें राजनीतिक सत्ताकी उनकी कोई आकांक्षा नहीं है।
आपका आदि,
मो॰ क॰ गांधी
- [अंग्रेजीसे]
- इंडियन ओपिनियन, १२-१-१९०७
३०८. क्विनका भाषण
हमारे जोहानिसबर्गके संवाददाताने श्री क्विनका भाषण भेजा है।[२] वह विचार करने योग्य है। श्री क्विनने जो भाषण दिया है उससे पता चलता है कि गोरोंको हमारी परिस्थितिकी लेशमात्र भी जानकारी नहीं है। श्री क्विनकी धारणा है कि : (१) एशियाई अध्यादेशसे बिना अनुमतिपत्रके आनेवाले भारतीय रुक जाते। (२) बिना अनुमतिपत्रके बहुतेरे भारतीय प्रविष्ट हुए हैं। (३) और भारतीय व्यापार रोकने में भी ट्रान्सवालका कानून सहायक होता।
ये तीनों बातें अनुचित हैं। ट्रान्सवालके रद्द किये गये अध्यादेशसे अनुमतिपत्रके बिना आनेवाले भारतीय रुकते नहीं। अनुमतिपत्रके बिना आनेवाले व्यक्तिको रोकनेवाला कानून केवल शान्ति-रक्षा अध्यादेश है। बहुतेरे भारतीय अनुमतिपत्रके बिना प्रविष्ट होते हैं, यह बात सही भी