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शिष्टमण्डल : श्री मॉर्लेकी सेवामें

नहीं देखता। पहली बात तो यह है कि मुझे इस बातका भरोसा नहीं है कि किसी उपनिवेशके साथ मामला यहाँतक बढ़ जायेगा। किन्तु यदि हम साल-दर-साल किसी सिद्धान्त के साथ खिलवाड़ करें, तो उपनिवेशियों में जातिगत प्रभुताकी क्षुद्र भावनाको बढ़ावा मिलेगा और आगे चलकर इसे हल करना अधिक कठिन हो जायेगा. . .। मैं कहना चाहता हूँ कि यदि परिस्थिति बहुत बिगड़ जाये तो भारत जानेवाले उपनिवेशवासियोंपर वैसे ही अपमानजनक प्रतिबन्ध लगाये जायें जैसे उपनिवेशवाले भारतवासियोंपर लगाना चाहते हैं, इससे कोई उपनिवेश शिकायत नहीं कर सकेगा। उदाहरण के लिए, यदि किसी आस्ट्रेलियाई व्यापारीको किसी विशिष्ट जिलेमें रहना पड़ता और पुलिसका परवाना निकलवाना पड़ता तो मेरे विचारसे उनमें से बहुत लोगोंकी समझमें यह बात बहुत जल्दी आ जाती कि ब्रिटिश प्रजाजनोंपर वे जो प्रतिबन्ध लगा रहे हैं, वे सहन करने योग्य नहीं हैं। मेरी समझमें यह बात महत्त्वपूर्ण है. . .। नहीं, मेरी समझ में यह असह्य है। मैं स्वयं यह सोचता हूँ कि जब भी हम सिद्धान्तसे हटते हैं, तब बहुत ही जल्दी बड़ी-बड़ी कठिनाइयोंमें फँस जाते हैं। मैं यह नहीं कहता कि किसी सिद्धान्तपर जैसा-का-तैसा अमल हो सकता है। मुझे लगता है कि ब्रिटिश सरकार वैसा नहीं कर सकती, किन्तु सिद्धान्त ध्यानमें रखना चाहिए और जितना हो सके उसके निकट पहुँचना चाहिए।

अन्तमें मैं यह कहना चाहता हूँ कि सर लेपेल ग्रिफिनने उपनिवेश-मन्त्री द्वारा हमें दिये गये आश्वासनपर जो संतोष प्रकट किया है उससे में सहमत नहीं हूँ। सहानुभूति प्रकट करना ठीक है लेकिन कुछ कर के दिखाना उससे बहुत बढ़कर है।

सर मं०॰ मे॰ भावनगरी :. . .जिस अध्यादेशकी शिकायत करनेके लिए प्रतिनिधि इतनी दूरसे आये हैं, यदि आपके प्रभावके कारण मन्त्रिमण्डल अथवा सम्राट्की सरकार उसपर अपना निषेधाधिकार प्रयुक्त करनेके लिए राजी हो गई, तो ठीक है। किन्तु यदि सम्राट्की सरकारको लगे कि उपनिवेशके कथित गोरोंके मनमें बसे हुए पूर्वग्रह और भारतीयोंके अधिकारमें ऐसी कोई खाई है जिसे उनके अथवा आपके प्रभाव द्वारा भरा नहीं जा सकता, तो मैं इस प्रार्थनाका समर्थन करूँगा कि सारे प्रश्नकी छानबीनके लिए एक आयोग नियुक्त किया जाये और वह सम्राट्की सरकारके सामने अपना निष्कर्ष रखे।. . .प्रतिनिधियों और साधारण रूपसे आफ्रिका तथा ट्रान्सवालमें रहनेवाले ब्रिटिश भारतीयोंके लगभग सारे समाजकी ओरसे मुझे यह कहनेका अधिकार है कि वे ऐसे आयोगके निर्णयोंको मान्य करेंगे। उनका खयाल है कि ६, ८ अथवा १२ निष्पक्ष अंग्रेज राजनयिक एक साथ बैठकर ऐसी जबरदस्त शिकायतकी छानबीन करें, तो उसमें गलती नहीं हो सकती . . .।

सर हे॰ कॉटन :. . .दक्षिण आफ्रिकामें जो कुछ हो रहा है उसे भारतके लोग बड़ी सावधानीसे देखते रहते हैं और महोदय, वे आपपर—जो उनके अधिकारों और स्वतन्त्रताके न्यासी हैं, वास्तवमें इस देशमें उनके एकमात्र संरक्षक हैं—भरोसा करते हैं। सच तो यह है कि यह देखना आपका काम है कि वे भूमण्डलके किसी भी भाग में क्यों न बसें, उनके साथ न्याय होना चाहिए...

सर लेपेल ग्रिफिन : महोदय, मेरी समझमें इतना पर्याप्त है...। आखिरकार यह सिद्धान्तका प्रश्न है और सिद्धान्त छोड़ा नहीं जाना चाहिए। सच कहें तो सरकारने चीनी