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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बहुत सहानुभूतिपूर्वक सुनीं और बहुतोंने संक्षिप्त भाषण देकर या प्रतिनिधियोंसे प्रश्न पूछकर अपनी सक्रिय सहानुभूति व्यक्त की। शिष्टमण्डलके उद्देश्योंका समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव सर्वसम्मतिसे पास किया गया। एक सदस्यने तो यहाँतक जानना चाहा कि इस सभामें अनुदार दलके सदस्योंको क्यों नहीं बुलाया गया। सर चार्ल्स डिल्कने, जो दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीयोंके पक्षका सतत समर्थन करते आये हैं, तत्काल हस्तक्षेप करते हुए कहा कि इसमें भूल हुई है और इस प्रश्नपर वे निश्चय ही अनुदार दलका सहयोग प्राप्त कर सकेंगे। उन्होंने और उदारदलीय संसदने दक्षिण आफ्रिकाकी भारतीय सह-प्रजाके दुःख दूर करने में सदा अनुदार दलके लोगोंका साथ दिया है।

बैठकके संयोजक श्री स्कॉटने कहा कि परिपत्र[१] केवल उदार, मजदूर और राष्ट्रवादी सदस्यों तक सीमित रखनेका कारण यह है कि शिष्टमण्डल जिस सरकारके पास आया है, वह उदार दलकी सरकार है और बैठकका वर्तमान स्वरूप ही उचित समझा गया। साथ ही इसमें कोई शक नहीं कि वे अनुदार दलके सदस्योंका भी सहयोग मागेंगे और उसे प्राप्त करने के हेतु सदा तैयार रहेंगे।

सर हेनरी कॉटनने आगे बताया कि शिष्टमण्डलमें कई कट्टर अनुदारदलीय सदस्य शामिल हैं।

इन कार्रवाइयोंसे यह प्रश्न दलीय राजनीतिसे ऊपर उठ जाता है और, जैसा कि सर चार्ल्स डिल्कने अक्सर कहा है, यह साम्राज्यीय महत्त्वका प्रश्न बन जाता है। इस कार्रवाईसे लॉर्ड एलगिनके हाथ मजबूत होने चाहिए और उन्हें अध्यादेशपर निषेधाधिकारका प्रयोग करने या कमसे-कम उस आयोगकी नियुक्तिके लिए, जिसका प्रतिनिधियोंने इतना आग्रह किया है, प्रेरणा मिलनी चाहिए।

लॉर्ड एलगिनके सामने जो आवेदन पेश किया गया उसमें इस मामलेके सारे तथ्य सम्पूर्ण रूपमें आ गये हैं और उससे स्पष्ट हो जाता है कि यह विधान कितना अनावश्यक और, १८८५ के कानून ३ की तुलनामें, कितना सख्त है। निःसन्देह यह संशोधन नहीं, बल्कि घोर वर्गभेदकारी नया कानून ही है। प्रतिनिधियोंकी प्रार्थना बहुत ही औचित्यपूर्ण है। उन्होंने लॉर्ड एलगिनसे केप या नेटालके ढंगके कानून स्वीकृत करनेका निवेदन किया है, जिससे ब्रिटिश भारतीय निवासियोंको अपने व्यापारमें सहायता देनेके लिए आवश्यक व्यक्ति व अन्य साधन लानेकी छूट हो। यदि ऐसा विधान पास किया जाता है तो इससे एशियाई लोगोंकी अबाध बाढ़का सारा भय दूर हो जायेगा। फिर अध्यादेशमें जिस जासूसीकी तजवीज की गई है उसकी अवाश्यकता ही नहीं रहेगी।

ऐसे विधानके अभावमें ब्रिटिश भारतीयोंकी दशा बहुत ही बुरी है। यह हालके एक मुकदमेसे जाहिर हो जाता है। यह मुकदमा एक ग्यारह वर्षसे कम आयुके एशियाई बालक[२] पर अपने पिताके साथ ट्रान्सवाल उपनिवेशमें प्रवेश करने के कारण चलाया गया था। सबसे अच्छा यह होगा कि हम ट्रान्सवाल सर्वोच्च न्यायालयके न्यायाधीशके उन शब्दोंको उद्धृत कर दें जो उन्होंने बच्चेका मुकदमा खारिज करते हुए कहे थे:

  1. देखिए, "परिपत्र: लोकसभाके सदस्योंकी बैठकके लिए", पृ४ ९३ ।
  2. मुहम्मद हाफिजी मूसा, देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ४६५।