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८०. फ्लॉरेन्स नाइटिंगेल'

हम पिछले एक अंकमें नेक महिला एलिज़ाबेथ फ्राइके कार्यकलापका वर्णन कर चुके हैं। जिस प्रकार उसने कैदियोंकी हालतमें परिवर्तन किया और उनके लिए अपना जीवन अर्पित किया, उसी प्रकार फ्लॉरेन्स नाइटिंगेलने फौजी सैनिकोंके लिए अपने प्राण दिये। सन् १८५१ में जब क्रीमियाकी ज़बरदस्त लड़ाई हुई तब ब्रिटिश सरकार अपनी परिपाटीके अनुसार सो रही थी। कुछ भी तैयारी नहीं थी। और जिस प्रकार बोअर युद्ध में हुआ था उसी प्रकार क्रीमियाकी लड़ाईमें भी आरम्भमें भूलें करनेके कारण करारी हार हुई। घायलोंकी सेवा-शुश्रूषा करनेके जितने साधन आजकल हैं, उतने पचास वर्ष पूर्व नहीं थे। सहायताकार्यके लिए आज जितने मनुष्य निकल पड़ते हैं, उतने उस समय नहीं निकलते थे। शल्य-चिकित्साका जोर जितना आज है उतना उन दिनोंमें नहीं था। घायल मनुष्योंकी सेवाके लिए जानेमें पुण्य है, वह दयाका काम है, ऐसा समझनेवाले उस समय बिरले ही थे। ऐसे समय इस महिला-फ्लॉरेंस नाइटिंगेल ने इस प्रकारके काम किये मानो वह फरिश्ता ही बनकर आई हो। सैनिक कष्टमें है, इस बातका पता उसे चला तो उसका हृदय विदीर्ण हो गया। वह स्वयं बड़े धनी कुलकी महिला थी। वह अपना ऐश-आराम छोड़कर रोगियोंकी सेवा-शुश्रूषाके लिए चल पड़ी। फिर उसके पीछे- पीछे और भी बहुत सी महिलाएँ निकलीं। १८५४ के अक्टूबरकी २१ तारीखको वह घरसे चली। इंकरमैनकी लड़ाईमें उसने जबरदस्त मदद पहुँचाई। उस समय घायलोंके लिए न बिस्तर थे, न और कुछ सुविधा ही। अकेली इस महिलाकी देखभालमें १०,००० घायल थे। जब यह महिला वहाँ पहुँची तब मृत्यु-संख्या प्रति सैकड़ा ४२ थी। इसके पहुँचते ही वह एकदम ३१ तक आ गई और अन्तमें वह संख्या प्रति सैकड़ा ५ तक आ पहुंची। यह घटना चमत्कारी है, फिर भी सहज ही समझमें आ सकती है। इन हजारों घायल मनुष्योंका रक्त बहना रोका जाये, घावपर पट्टी बाँधी जाये, और आवश्यक आहार दिया जाये तो निःसन्देह जान बच सकती है। केवल दया और सेवा-शुश्रूषाकी आवश्यकता थी, जो नाइटिंगेलने पूरी कर दी। यह कहा जाता है कि बड़े और मजबूत लोग जितना काम नहीं कर सकते थे उतना नाइटिंगेल करती थी। वह दिन-रातमें मिलाकर २०-२० घंटे काम किया करती थी। जब उसके हाथके नीचे काम करने- वाली महिलाएँ सो जाती तब वह अकेली मध्य-रात्रिमें मोमबत्ती लेकर रोगियोंकी खाटोंके पास जाती, उनको आश्वासन देती और अगर कुछ खुराक वगैरह आवश्यक होती तो उन्हें अपने हाथसे देती। जहाँ लड़ाई चलती होती वहाँ जानेमें भी नाइटिंगेल डरती नहीं थी। खतरेको वह कुछ समझती ही नहीं थी। भय केवल भगवानका मानती थी। कभी-न-कभी मरना ही है, ऐसा समझकर औरोंका दुःख कम करनेके लिए जो भी तकलीफ उठानी पड़ती, वह उठाती थी।

इस महिलाने कभी ब्याह नहीं किया। इसी प्रकारके भले कामोंमें उसने अपना सारा जीवन बिताया। कहा जाता है कि जब उसकी मृत्यु हुई तब हजारों सैनिक छोटे बच्चोंके समान ऐसे फूट-फूटकर रोये मानो उनकी माँ मर गई हो।

१. (१८२०-१९१०), प्रसिद्ध परिचारिका और अस्पतालोंकी अग्रणी सुधारक ।

२. वास्तवमें कीमियाकी लड़ाई २३ अक्तूबर १८५३ को शुरू हुई।

३. यह ५ नवम्बरको हुई।