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प्रोफेसर परमानन्द

भयंकर आपत्तियोंसे रक्षाका एकमात्र उपाय यह है कि शासितोंके साथ अधिकतम सहानुभूति और दयालुताका व्यवहार किया जाये।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २६-८-१९०५

६८. प्रोफेसर परमानन्द

ऐंग्लो-वैदिक कॉलेजके प्रतिष्ठित विद्वान, प्रोफेसर परमानन्दको अब हमारे बीच रहते कुछ सप्ताह हो चुके हैं। उन्होंने बड़ी-बड़ी सभाओं में रोचक व्याख्यान दिये हैं। उनका उद्देश्य आर्यसमाजकी शिक्षाओंका प्रचार करनेका जान पड़ता है। इस समाजने, इसके धार्मिक सिद्धान्त कुछ भी हों, अत्यन्त उपयोगी और व्यावहारिक कार्य किया है । इसने सच्चे देशभक्त और बहुत-से आत्मत्यागी शिक्षक उत्पन्न किये हैं। कुछ महीने पूर्व भारतमें जो भयंकर भूकम्प आया था, उसमें भी आर्यसमाज उत्तम काम कर चुका है। प्रोफेसर परमानन्द कार्यकर्ताओंके उसी समाजसे सम्बन्धित है, और इसलिए दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंसे उनको हार्दिक स्वागत पानेका हक है। निश्चय ही, हम लोगोंके बीच विद्वान और सुसंस्कृत भारतीय बहुत नहीं आ सकते।

लेकिन प्रश्न यह है कि हम ऐसे व्यक्तियोंसे क्या लाभ उठायें या वे हमारा क्या उपयोग करें। हम कबूल करते हैं कि अपने बीच धार्मिक आधारपर तीव्र प्रचार-कार्यके लिए हम अभी परिपक्व नहीं हैं। यहाँको जमीन इस कार्यके लिए तैयार नहीं है। हरएक मजहब अपने लिए अलगसे अपना प्रचारक और हितरक्षक रख नहीं सकता, सो बात नहीं है। आर्यसमाज भारतके किसी स्थापित रूढ़िगत धर्मका प्रतिनिधित्व नहीं करता। यदि हम यह कहें कि आर्य- समाज एक ऐसा फिर्का है जो अभी अपने अस्तित्वके लिए संघर्ष और नये अनुयायी बनानेके उपयुक्त परिस्थिति तैयार कर रहा है तो इससे उसका यश कम नहीं होता। वह हिन्दू धर्ममें सुधारका प्रतीक है। हम अनुभव करते हैं कि दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय अभी सुधारके किसी भी सिद्धान्तको ग्रहण करनेके लिए तैयार नहीं है। जहाँतक भारतीयोंमें आन्तरिक कामका सम्बन्ध है, उनकी आवश्यकता है शिक्षण, और, जितना भी अधिक मिले उतना, ठीक प्रकारका शिक्षण। हमने सदा माना है कि भारतीय गृहस्थीमें सुधारकी गुंजाइश है। और यह सुधार इन सैकड़ों भारतीय युवकोंके शिक्षणके बिना न होगा जो इस उपमहाद्वीपमें प्रायः सर्वथा उपेक्षित हैं। हमारी नम्र सम्मतिमें प्रोफेसर परमानन्द सबसे अच्छा कार्य यह कर सकते हैं कि वे इस प्रश्नकी ओर अपना ध्यान ले जायें। वे जिस समाजके प्रतिनिधि हैं उसकी शक्ति, शुद्धता और उपयोगिता प्रदर्शित करनेका यह एक बहुत अच्छा, व्यावहारिक और प्रभावशाली उपाय है। हमारा खयाल है कि दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय बालकोंको वेतन-भोगी अध्यापकोंके द्वारा पर्याप्त शिक्षण दिलाना प्रायः असंभव है। हमें प्रारम्भिक शिक्षण तक के लिए उच्चतम योग्यता, अनुभव और संस्कृतिके अध्यापकोंकी आवश्यकता है।

हम इन विचारोंको प्रोफेसर परमानन्द और उनके द्वारा आर्यसमाज अथवा इसी प्रकारको भारतकी अन्य संस्थाओंकी सेवामें -- उनका मत या धर्म चाहे जो हो-- हार्दिक विचारके लिए प्रस्तुत करनेका साहस करते हैं।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २६-८-१९०५