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६७. लॉर्ड कर्जन

होनी होकर रही। लॉर्ड कर्जन अब भारतके वाइसराय नहीं रहे। यह भाग्यकी विडम्बना है कि जब उनका हटाया जाना अशक्य मालूम पड़ता था तभी उन्हें अत्यन्त अपमानजनक परि- स्थितियों में जाना पड़ा। वे ऐसे वाइसराय थे जिनके लिए प्रतिष्ठा ही सब कुछ थी और जो अपने हाथ में लिये हुए कामोंमें सफलता प्राप्त करने के लिए अपनी प्रतिष्ठापर बहुत ज्यादा भरोसा रखते थे। अब उन्हें भारतसे जाना पड़ा है, तब उनकी प्रतिष्ठा नामके लिए भी शेष नहीं रही है। उनपर यह दुर्भाग्य युद्ध-मन्त्री द्वारा लगाये गये लाञ्छनके कारण आया। इससे वह अधोगति और भी स्पष्ट हो जाती है जो उन्हें सहनी पड़ी। ऐसा लगता है मानो यह उन करोड़ों पीड़ितोंकी प्रार्थनाका ही फल था जो उनके स्वेच्छाचारी शासनमें कराह रहे थे।

हमारा खयाल है कि लॉर्ड कर्ज़नने जो कुछ किया, नेकनीयतीसे प्रेरित होकर किया। उनका विश्वास निस्सन्देह यह था कि भारतीयोंके विरोधके बावजूद, वे खुद जिन बातोंको सुधारका नाम देना पसन्द करते उन्हें जबरदस्ती लोगोंके गले उतारकर उनका हित ही कर रहे हैं। पद संभालते ही उन्होंने जो ऊँची आशाएँ उत्पन्न की थीं वे अन्य किसी वाइसरायने कभी नहीं की। उनके भाषणोंसे भारतीय विश्वास करने लगे थे कि वे भारतीय समस्याओंके समाधानके मामले में लॉर्ड रिपनसे बाजी मार ले जायेंगे। ब्रिटिश सैनिकोंके व्यवहारके सम्बन्धमें उन्होंने जो सम्मति लिखी थी उसके द्वारा उन्होंने अपने वचनोंको कार्यरूप देकर भी दिखा दिया था। नमक-करमें कमी और दक्षिण आफ्रिकी ब्रिटिश भारतीयोंके पक्षका समर्थन उनको सदा ही ख्याति देंगे। परन्तु इन बातों को पूरी गुंजाइश छोड़नेके पश्चात् भी, विशुद्ध परिणाम यह है कि उन्होंने अपने कार्य-कालका आरंभ लोगोंकी जितनी सद्भावनाके साथ किया था उसके अन्तमें वे उनकी उतनी ही अप्रियता कमा चुके है। यद्यपि उन्हें त्यागपत्र एक ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण कारणसे देना पड़ा जो कि असैनिक शासनपर सैनिक निरंकुशताकी जीतका सूचक है, यद्यपि हम यह कल्पना बखूबी कर सकते हैं कि आज हजारों भारतीय घरोंमें आनन्द मनाया जा रहा होगा और ईश्वरको धन्वयाद दिया जा रहा होगा - इस मुक्तिपर, जो शुभ समझी जायेगी; और वह अकारण नहीं।

लॉर्ड कर्जनकी कारगुजारियोंको देखते हुए किसी नये वाइसरायसे कोई आशाएँ बाँधना बड़ा जोखिम-भरा काम हो गया है। यदि हम सुखी होना चाहते हैं तो शायद कोई आशा न बाँधना ही ज्यादा निरापद है। परन्तु मनोनीत वाइसराय लॉर्ड मिंटोके रूपमें भारतको एक उदात्त पुरुष मिल रहा है। भारत उनसे अपरिचित भी नहीं है, क्योंकि वे एक ऐसे प्रतिष्ठित वंशके हैं जिसका एक और भी व्यक्ति' भारतका वाइसराय रह चुका है। अपने औपनिवेशिक अनुभवसे भारतके शासनमें उन्हें अपरिमेय सहायता मिलनेको सम्भावना है। उपनिवेशोंके शासनकी परम्पराएँ सदा विशुद्ध वैधानिक रही है और यदि भारतमें भी उनका पालन किया गया तो सम्राट एडवर्डके साम्राज्यके उस भागमें अगले पांच वर्ष तक शान्तिपूर्ण शासनकी आशा की जा सकती है। ईश्वर करे कि ऐसा ही हो। उस देश में एक बार फिर दुभिक्षका खतरा है; वहाँ अब भी लोग प्लेगसे मर रहे हैं; और निर्धनता प्रतिदिन लाखों घरोंको खोखला किये दे रही है। इन तिहरी

१. (१८२७-१९०९) भारतके वाइसराय और गवर्नर जनरल, १८८०-४ और उपनिवेश मंत्री, १८९२-५ ।

२. अर्ल मिंटो प्रथम, फोर्ट विलियम, बंगालके गवनर-जनरल : १८०७-१३