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सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय

उन्होंने कहा:

१९०२ और १९०३ में भारतके चौदह करोड़ तीस लाख पौंडके व्यापारमें से छः करोड़ बीस लाख पौंडका व्यापार सीधा ब्रिटेनके साथ था। और गत वर्षके सत्रह करोड़, सैंतालीस लाख और अड़तालीस हजार पौंडके व्यापारमें से सात करोड़ सत्तर लाख पौडका माल सीधा ब्रिटेनमें आया या ब्रिटेनसे गया था। ब्रिटेनके व्यापारमें यह मात्रा छोटी नहीं है। कुछ लोग, कई दृष्टियोंसे, इस समय, उपनिवेशोंके व्यापारकी भारतके व्यापारके साथ तुलना कर रहे हैं। इसलिए यदि हम इन अंकोंकी तुलना करें तो मैं बतला सकता हूँ कि १९०२ में भारतको ब्रिटेनसे तीन करोड़ पैंतीस लाख पौंडका माल गया था। और यह निर्यात, कैनेडा, ब्रिटिश उपनिवेशों, उत्तरी अमेरिका और आस्ट्रेलियाको किये गये कुल निर्यातके बराबर था। गत वर्ष भारतको किये गये निर्यातका परिमाण बढ़कर चार करोड़ पौंड हो गया था, और वह, इस देशसे आस्ट्रेलिया, कैनेडा और केप उपनिवेशको किये गये कुल निर्यातके बराबर था।

श्री ब्रॉड्रिकको इस सबका स्वाभाविक परिणाम निकालने में कोई कठिनाई नहीं हुई । इसलिए उन्होंने आगे कहा :

मुझे विश्वास है कि जब मैं यह कहूँ कि ब्रिटेनके साथ भारतका व्यापार बढ़तीपर है, तो मुझे आशा है, इस सभाका प्रत्येक सदस्य मेरा समर्थन करेगा। भारतके व्यापारमें ब्रिटेनका और ब्रिटेनके व्यापारमें भारतका भाग इतना अधिक है कि साम्राज्यके अन्तर्गत व्यापारके सम्बन्धमें जो भी विवाद हों उन सबमें हम भारतको प्रथम स्थान देनका दावा कर सकते हैं।

श्री ब्रॉड्रिकने जो दूसरा वक्तव्य दिया वह साम्राज्यको रक्षाके विषयमें था। भारत पचहत्तर हजार ब्रिटिश सैनिकोंके प्रशिक्षणका और एक लाख चालीस हजार ब्रिटिश भारतीय सनिकोंकी भर्तीका स्थान है, और साम्राज्य इन सब सैनिकोंका किसी भी संकटके समय उपयोग कर सकता है। इन सबका खर्च भारत उठाता है, जो उसकी आठ करोड़ बीस लाख पौंडकी आमदनीमें दो करोड़ पाँच लाख पौंड बैठता है। लॉर्ड रॉबर्ट्ससे लेकर अबतक के सब नामी सेनापतियोंने भारतीय सेनाकी कुशलताकी पुष्टि की है। सर जॉर्ज व्हाइट और उनकी सेनाने, बोअर-युद्धके समय, अपनी इस तत्परताका प्रभावशाली उदाहरण उपस्थित किया था। ये सब तथ्य अर्थ-पूर्ण है। दक्षिण आफ्रिकाके राजनीतिज्ञोंको इन सबका अध्ययन और मनन करना चाहिए। और जब वे ऐसा कर चुकें तब हम उन्हें आदरपूर्वक सलाह देंगे कि वे अपने- आपसे यह प्रश्न करके देखें कि क्या विशुद्ध स्वार्थकी दृष्टि से भी, भारतके निवासियोंके साथ, निरन्तर, बिलकुल ऐसे विदेशियोंका-सा व्यवहार करना लाभप्रद होगा जो कि उनकी ओरसे किसी भी प्रकारके लिहाजके अधिकारी न हों।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २२-९-१९०५