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सम्पूण गांधी वाङ्मय

दे दी जाये। शर्त सिर्फ यह है कि अगर निर्णय मेरे पक्षमें हो तो आपका पत्र-लेखक भी ब्रिटिश भारतीय संघको उतनी ही रकम देनेके लिए तैयार हो। इन दो मध्यस्थोंमें से एकका चुनाव आपका पत्र-लेखक करेगा और दूसरेका मैं। एक सरपंच चुन लेनेका अधिकार उन दोनोंको होगा। यह हुआ 'सिकरैमसैम' के आंकड़ोंके बारेमें।

जहाँतक इस आरोपका सम्बन्ध है कि वतनी ब्रिटिश भारतीयों द्वारा मूड़े जा रहे हैं, मैं आपके पत्र-लेखकका ध्यान सर जेम्स हलेटकी इस साक्षीकी ओर दिला सकता हूँ, जो उन्होंने वतनी कार्य-आयोगके सामने इस विषयमें दी थी कि अधिक बड़ा कुकर्मी कौन है-यूरोपीय या भारतीय? आपके पत्र-लेखकके अन्य आरोपोंके बारेमें, जो उसे दी गई जानकारी' पर आधारित हैं, मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि समझदार लोग उनकी सच्ची कीमतको समझकर ही उनका मूल्य आँकेंगे। अगर भारतीय कोई भी बेईमानीका व्यापार कर रहे हैं और पत्र-लेखकको उसकी जानकारी है तो निश्चय ही उसका इलाज उसीके हाथोंमें है। और अगर व्यापारिक परवानोंका प्रश्न अबतक अन्तिम रूपसे तय नहीं हुआ तो उसका कारण यह है कि 'सिकरैम- सैम' और उनके साथी ब्रिटिश भारतीयोंके सुझाये हुए उस अत्यन्त उचित समझौतेको भी मान्य करनेको तैयार नहीं है जिसके द्वारा नये परवानोंका नियन्त्रण नगर-परिषदके सदस्योंको सौंप दिया जायेगा और इस परिषदका चुनाव अधिकतर 'सिकरैमसैम' और उनके साथी ही करेंगे। महाशय, युद्धके पूर्व ब्रिटिश भारतीय प्रश्नका रूप जैसा था उसका थोड़ा-बहुत अनुभव आपको है। साथ ही आपको ब्रिटिश भारतीयोंका अनुभव भी है। पत्रकारितामें आपने स्वतन्त्र रुख अख्तियार किया है। मुझे निश्चय है, आप यह नहीं चाहते कि ब्रिटिश साम्राज्यके संघटक अंगोंके बीच जातीय विद्वेष बढ़े। संभवतः आप यह भी जानते होंगे कि आपके पत्र-लेखकने जिन तथ्योंको पेश किया है उनमें से कुछ असत्य हैं। जिन वक्तव्योंके प्रत्यक्ष मिथ्या होने में कोई सन्देह नहीं है उनकी भूल सुधारकर क्या आप अपने शुभवतका ही पालन नहीं करेंगे? भारतीय केवल न्याय चाहते हैं, अनुग्रह नहीं। ब्रिटिश झंडेके नीचे न्याय दुर्लभ वस्तु नहीं होनी चाहिए।

आपका,आदि,

मो० क०गांधी

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २९-७-१९०५




१. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ४८८-८९ ।