पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 5.pdf/४०५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३७१
अनुमतिपत्रका एक महत्त्वपूर्ण मुकदमा

ट्रान्सवाल जाकर अपने भाईका स्थान ग्रहण करना था। क्योंकि उनके भाईका स्वास्थ्यके खयाल से भारत जाना जरूरी हो गया था। ऐसे प्रमाणके होते हुए भी श्री भायात अनुमतिपत्र प्राप्त न कर सके। इसका कथित कारण यह बताया गया कि चूंकि युद्ध छिड़नेके कुछ वर्ष पूर्व ही वे ट्रान्सवाल छोड़कर जा चुके थे इसलिए उन्हें शरणार्थी नहीं कहा जा सकता। ब्रिटिश भारतीय संघके द्वारा मामला लॉर्ड सेल्बोर्नके पास भेजा गया, परन्तु परमश्रेष्ठने भी राहत देनेसे इनकार कर दिया। हमारे लिए यह दुःखद आश्चर्यका विषय है कि ऐसे महत्त्वपूर्ण मामलेमें उच्चायुक्त न्याय करने से इनकार कर दे। भारतीयोंको यह शिकायत करनेका अधिकार है कि परमश्रेष्ठने भारतीय समाज के प्रति वह उचित सम्मान नहीं दिखाया जिसके, उन्होंने कुछ ही समय पहले कहा था, भारतीय सही तौरपर अधिकारी हैं।

इस इनकारीसे चिढ़कर श्री भायातने उपनिवेशकी अदालतोंसे अपील की, जिसका फैसला पूर्ण रूपसे श्री भायातके पक्षमें हुआ। शान्ति-रक्षा अध्यादेशकी मजिस्ट्रेट द्वारा की गई व्याख्याका अर्थ यह है कि, जो भारतीय पुरानी सरकारको तीन पौंड दे चुके हैं वे ट्रान्सवालमें, उक्त रकमकी अदायगीका प्रमाण देकर, बिना अनुमतिपत्रके प्रवेश कर सकते हैं।

इस मुकदमेने एक बार फिर प्रदर्शित कर दिया है कि ट्रान्सवालमें सरकारसे न्याय पाना किसी भारतीय के लिए कितना कठिन है। जबसे इस उपनिवेशमें ब्रिटिश शासनकी स्थापना हुई है तबसे ब्रिटिश साम्राज्यके उस भागमें भारतीयोंको अपने अस्तित्वके अधिकारके लिए संघर्ष करना पड़ा है। अनेक बार वे उपनिवेशकी अदालतोंकी सहायता द्वारा अनिच्छुक सरकारसे न्याय हासिल करनेको मजबूर हो चुके हैं। लॉर्ड सेल्बोर्नको ब्रिटिश भारतीय संघकी यह शिकायत बुरी लगी कि परवाना सम्बन्धी परीक्षात्मक मुकदमेमें सरकारने भारतीयोंका विरोध किया। शायद उसमें बुरा लगनेका कुछ आधार था भी, क्योंकि गणराज्यके उच्च न्यायालय द्वारा किया गया एक फैसला मौजूद था, जिसे अमल में लानेके लिए वर्तमान सरकारने अपनेको बाध्य महसूस किया। पर वर्तमान मामलेमें तो ऐसा कोई पूर्वोदाहरण भी नहीं था। शान्ति-रक्षा अध्यादेश ब्रिटिश सरकारकी रचना है। भारतीय प्रवासियोंके आव्रजनपर प्रतिबन्ध लगानेकी गरजसे उसे उसके उचित क्षेत्रसे खींचतान कर लागू किया गया। किसी पूर्वोदाहरणका विचार किये बिना स्वयं ही आगे बढ़कर राहत देना सरकारके अपने हाथमें था। फिर भी एक भारतीय व्यापारीको बहुत व्यय करना पड़ा है, वह परेशानी में फँसा है और उसे प्रारम्भिक न्यायपूर्ण व्यवहार पानेके लिए भी उपनिवेशकी अदालतोंका सहारा लेनेको मजबूर होना पड़ा है। हमें कौतूहल है कि लॉर्ड सेल्बोर्न ट्रान्सवालकी शासन-सत्ताकी इस नवीनतम कार्रवाईको किस प्रकार न्यायसंगत ठहराते हैं।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २३-६-१९०६