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नेटालमें भारतीयों की स्थिति


ऊपरके तीनों मामलोंमें प्रार्थियोंको उनके परवाने न देने और इस तरह उन्हें शायद उनकी जीविका साधनसे वंचित करनेमें औचित्यका लेश भी नहीं है। ये सब निहित स्वार्थ थे, फिर भी हमारी राय में सार्वजनिक निकायोंने न्याय और अधिकारकी समस्त मान्यताओंको कुचलनेमें आगा-पीछा नहीं किया। यदि सर्वोच्च न्यायालयका अधिकार क्षेत्र सुरक्षित रखा जाता, तो ऐसा जबरदस्त अन्याय कभी सम्भव न होता। जिन व्यापारियोंकी दूकानें गन्दी हों, अथवा भद्दी ही हों, या जो अपने व्यापारका समझने योग्य लेखा-जोखा प्रस्तुत न कर सकें, या जो अपने साहूकारोंको धोखा देनेके लिए बदनाम हों, उनपर आपत्ति करना समझ में आ सकता है; जनताकी भावना और पूर्वग्रहको ध्यान में रखकर भारतीय व्यापारियोंको नये परवाने देनेमें बहुत ज्यादा हिचकिचाना भी समझा जा सकता है; किन्तु उक्त उदाहरणोंमें लोगोंके साथ किये गये व्यवहारका औचित्य सिद्ध करना कठिन है। इस सन्दर्भ में, हालमें प्रकाशित केपके विधेयकका अध्ययन कर लेना बहुत ही उचित होगा और उससे इस प्रश्नपर बहुत प्रकाश पड़ेगा। यद्यपि इस विधेयकपर कोई तर्कसंगत आक्षेप नहीं किया जा सकता, फिर भी इससे ब्रिटिश परम्पराओं अथवा उचितानुचितके प्रारम्भिक विचारोंको ठेस पहुँचाये बिना वह सब कुछ हो जायेगा जो नेटाल अधिनियमके द्वारा उद्दिष्ट था।

सरकारने परवाना देनेवाले अधिकारियोंके नाम इस आशयकी गश्ती चिट्ठी भेजी है कि दिये गये परवानोंके प्रतिपत्रोंपर शिनाख्तको पक्का बनानेके लिए भारतीय प्राथियोंके अंगूठेके निशान लिये जायें। इससे एक अतिरिक्त कठिनाई सामने आ गई है। सरकार वर्तमान परवानेदारों के व्यापारसे हटते या मरते ही उनके कारोबार को चलते हुए धन्वेंके रूपमें न बेचकर एकदम बेच देनेका इरादा करती है। भारतीयोंके साथ इस तरहका भेदभाव करनेका इसके सिवा कोई दूसरा कारण समझमें नहीं आता। किसी व्यापारीके लिए इसका क्या अर्थ है सो कहनेकी नहीं, कल्पना करने की बात है।

प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम

इस अधिनियम के अन्तर्गत हालमें सरकारने ऐसे नियम बनाये हैं, जिनके बलपर खालिस लूट जैसा शुल्क लादा गया है। जो भारतीय नेटालका निवासी है और नेटालमें वापस लौटना चाहता है वह प्राय: अपने साथ कुछ लिखित प्रमाण रखता है। उसे सरकार पर्याप्त सबूत मिलनेपर अधिवासी प्रमाणपत्र दे देती है। इसके लिए अभीतक नाममात्रको २ शिलिंग ६ पेंसका शुल्क लिया जाता था, किन्तु अब इसे बढ़ाकर एक पौंड कर दिया गया है। इसी प्रकार, जो कुछ दिनोंके लिए उपनिवेशमें आना चाहते हैं या भीतरी राज्योंके निवासी होनेके कारण भारत जाते हुए नेटालसे गुजरना चाहते हैं उनको भी सुविधाएँ दी जाती हैं। इन्हें अभ्यागत पास य नौकारोहण पास कहते हैं। अभी हाल तक १० पौंड जमा कर देनेपर ये बिना किसी शुल्कके जारी कर दिये जाते थे। जमा की हुई रकम उपनिवेश छोड़नेपर वापस कर दी जाती थी। अब इन पासोंपर भी एक पौंड शुल्क लगा दिया गया है। यह कर असाधारण है। ब्रिटिश भारतीय नेटालसे गुजर कर रेलवेकी आमदनी बढ़ाते हैं, इस विशेषाधिकारके बदले अब उन्हें एक पौंड शुल्क भी देना पड़ेगा। अभ्यागतोंपर भी यही तर्क लागू होता है। यह देखते हुए कि कानून आकर बसनेपर प्रतिबन्ध लगाता है, कुछ दिन ठहरनेपर नहीं, यह सोचना स्वाभाविक है कि जो उपनिवेशमें कुछ दिन रहना चाहते हैं वे वापस हो ही जायें, इस बातको पक्का करनेका खर्च सरकारी खजानेपर पड़ना चाहिए। किन्तु सरकारने दूसरा ही दृष्टिकोण अपनाया है। वह मानती है कि जो आदमी आरजी तौरपर नेटालकी यात्रा करता है, उसपर भी प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम लागू किया जा सकता है; और इसलिए उपनिवेशमें यात्राकी अनुमति देना उसे एक बहुत बड़ी सुविधा देना है। कानूनमें इस मान्यताका कोई समर्थन नहीं मिलता। ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनमें