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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

फर्ज है कि अपने अड़ोसी पड़ोसियों, परिचितों और जिन-जिनपर हमारी बातका असर पड़ता है, उन सबको ऐसी भूलोंसे दूर रहनेके लिए समझायें। इस प्रकारके सुधार करनेके लिए हम समितियाँ बनायें, तो वह भी गलत नहीं कहा जायेगा। हम मानते हैं कि, जो समितियाँ हालमें कायम हुई हैं, उनका मुख्य कर्तव्य यही है। हम ऐसी बातोंकी ओर मुस्लिम संघ और हिन्दू सनातन धर्म सभाका ध्यान विशेष रूपसे खींचते हैं। हमारे बड़े-बड़े व्यापारी, जो सचमुच अगुआ हैं, इस मामलेमें बहुतसे सुधार कर सकते हैं। सबसे पहले तो वे अपने भंडारोंके पीछेकी जगहोंको साफ करवा सकते हैं और यों वे छोटे व्यापारियों और फेरीवालोंपर अपना प्रभाव डाल सकते हैं।

यह कहना गलत न होगा कि कुछ कानून तो हमने निमंत्रित किये हैं। और अगर अब भी हम न चेतेंगे तो ज्यादा सख्तीका सामना करना पड़ेगा। हम आपस में बातचीत करते समय अपनी तुलना यहूदियोंके साथ करते हैं। तुलना करते हुए हम यह कहते हैं कि यहूदियोंकी रहन-सहन हमसे ज्यादा गन्दी है, फिर भी उन्हें कोई नहीं सताता। इस बात में सिर्फ आधी सचाई है, और अर्धसत्य आदमीको सदा भुलावेमें डालता है। यहूदियोंकी रहन-सहन गरीबीमें हमसे खराब रहती है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन हाथमें पैसा आ जानेपर वे उसका उपयोग अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं। धनका गलत संग्रह करने के बदले वे उसका उपयोग उचित स्थानोंमें करते हैं। डर्बनमें, जोहानिसबर्ग में अथवा केप टाउनमें, हम जहाँ भी देखते हैं, हमें साफ दिखाई देता है कि जिन यहूदियोंने पैसा कमाया है, वे उसका उपयोग करना भी जानते हैं। उनके घर बहुत साफ और सुन्दर हैं। उनकी रहन-सहन ऊँचे दर्जेकी है। वे दूसरे यूरोपीयोंके साथ आसानी से घुलमिल सकते हैं। अपने इस व्यवहारके कारण वे ज्यादा पैसा भी कमा सके हैं। और वह यहाँ तक कि, आज जोहानिसबर्ग में वे राज्यकर्त्ताओं जितना ही प्रभाव रखते हैं। दुनियामें अधिकसे-अधिक धनवान लोग उनमें मिल सकते हैं।

मनुष्य जाति में यह विशेषता है कि वह अपने जैसे अवगुण दूसरोंमें खोज लेती है, और फिर यह जानकर सन्तोषका अनुभव करती है कि दूसरोंमें भी उसके जैसे अवगुण मौजूद हैं। जो समझ सकते हैं, जिनके मनमें देशके लिए दर्द है, जिन्हें दूसरोंकी बहादुरीको देखकर जोश आता है, ऐसे गुणीजनोंको सद्भावनापूर्वक दूसरोंके अवगुणोंका खयाल न करते हुए उनके गुणोंका ही ध्यान रखना चाहिए और उनके अनुसार चलकर दूसरोंको चलानेकी कोशिश करनी चाहिए।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-५-१९०६