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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रश्नपर उसके गुणावगुणकी दृष्टिसे विचार किया होता तो उनके लेखोंका महत्व और भी ज्यादा बढ़ जाता। क्योंकि जहाँ प्रवास साम्राज्यकी नीतिका मामला है, वहाँ गिरमिटिया मजदूरोंका प्रश्न करार और बातचीतका है।

एक प्रश्नपर विचार करनेमें जिन बातोंका खयाल रखना होता है, वे दूसरे प्रश्नपर भी लागू हों, यह जरूरी नहीं है। दक्षिण आफ्रिकामें, जहाँ ट्रान्सवाल और नेटाल बहुत-कुछ गिरमिटिया मजदूरोंपर निर्भर हैं, फिर वे भारतसे आयें या एशियाके अन्य भागोंसे, इस अन्तरको खयालमें रखना अत्यन्त आवश्यक है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-५-१९०६
 

३४२. दक्षिण आफ्रिकामें दुकान-बन्दी आन्दोलन

सभी जानते हैं कि नेटालमें निश्चित समयपर दूकानें बन्द करनेका कानून बन चुका है। हम यह कह चुके हैं कि केपकी धारासभामें इस प्रकारका विधेयक पेश होनेवाला है। अब जोहा- निसबर्गसे समाचार मिले हैं कि ट्रान्सवालमें भी इस तरहकी हलचल शुरू हो गई है। मेसॉनिक टेम्पलमें बड़े-बड़े यूरोपीय लोगोंकी सभा हुई थी। सर जॉर्ज फेरार उसके सभापति थे। जोहानिसबर्ग के महापौर उसमें हाजिर थे। इस सभा में तय किया गया है कि निश्चित समयपर दुकानें बन्द करनेका कानून बनना चाहिए। भारतीय व्यापारियोंको इस विषयमें चेतकर चलना चाहिए। कानून बने और हमारे लिए लाजिमी हो जाये, उससे पहले हम कदम उठा लें, इसीमें हमारी शोभा है। नेटालके दुकान-व्यवस्थापकोंका कहना है कि यदि हम, लाजिमी हो जानेके बाद अपनी दुकानें बन्द करते हैं तो कोई खास बात नहीं करते। एक हद तक यह बात ठीक भी है। पॉचेफस्ट्रूमके भारतीय व्यापारियोंने नियमानुसार दूकानें बन्द करनेका प्रस्ताव पास किया था। इसपर हम उन्हें बधाई भी दे चुके हैं। पर हमारे प्रतिनिधिने लिखा है कि वहाँके भारतीय व्यापारियोंने नियमानुसार दूकानें बन्द करना फिर छोड़ दिया है। अगर ऐसा हुआ है, तो हमें इसका अफसोस है। पाँचेफस्ट्रम के भारतीय व्यापारियों और दूसरी जगहोंके व्यापारियोंको खास तौरपर हमारी सलाह यह है कि अगर वे कानून बनने से पहले चेत जायें और दूकानें बन्द करनेके बारेमें गोरे व्यापारियों के साथ समझौता कर लें, तो बहुत अच्छा होगा।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-५-१९०६