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३३४. भारतीय स्वयंसेवा

वतनी-विद्रोहके सम्बन्ध में भारतीय समाजकी दित्सापर 'नेटाल ऐडवर्टाइज़र' में जो पत्र-व्यवहार प्रकाशित हुआ है, उसकी ओर सामान्यतः हमारा ध्यान देना उचित नहीं होगा। परन्तु चूंकि हमारे सहयोगीके संवाददाताओंने जिस विषयपर विचार व्यक्त किये हैं, वह भारतीय समाज और उपनिवेश-दोनोंके लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है, इसलिए हमारा उनके द्वारा उठाये गये मुद्दोंपर विचार करना कोई गुनाह नहीं है। कुछ संवाददाताओंने अन्धाधुन्ध गालियोंकी जो बौछार की है, उससे हमारा कोई सरोकार नहीं है।

एक संवाददाताने व्यंगपूर्वक यह सुझाव पेश किया है कि भारतीयोंको सेनाकी अगली पंक्ति में रखा जाये ताकि वे भाग न जायें; और फिर उनकी और वतनियोंकी लड़ाई देवताओंके देखने योग्य होगी। हम संवाददाताकी बातपर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहते हैं। और यह सुझाते हैं कि यदि यह तरीका अपनाया जाये तो निस्सन्देह भारतीयोंके लिए उससे बढ़िया कोई दूसरी बात न होगी। अगर वे कायर हैं तो उनकी जो गति होगी वे उसके पात्र होंगे। यदि वे वीर हैं। तो वीरोंके लिए अगली पंक्ति में रहने से अच्छी दूसरी बात नहीं हो सकती। परन्तु दुःख तो यह है कि सरकारने और यूरोपीय उपनिवेशियोंने, जिन्होंने सरकारकी नीतिका संचालन किया है, भारतीयोंको आवश्यक अनुशासन और प्रशिक्षण देनेकी प्रारम्भिक सावधानी भी नहीं बरती है। इसलिए भारतीयोंसे बन्दूक चलाने अथवा युद्ध-सम्बन्धी कोई भी कार्य बहुत कुशलतापूर्वक करनेकी आशा रखना व्यवहारतः असम्भव है। पिछले युद्ध में भारतीय आहत सहायक-दलने आवश्यक प्रशिक्षण तथा अनुशासनके बिना भी बहुत अच्छा काम किया था, वह इसीलिए कि जिन भारतीय नेताओंने दलमें योग दिया था वे डॉ° बूथके द्वारा पहले ही प्रशिक्षित और तैयार किये जा चुके थे।

दूसरे संवाददाताने सुझाव दिया है कि भारतीयोंको हथियार न दिये जायें क्योंकि यदि ऐसा किया गया तो वे अपने हथियार वतनियोंके हाथ बेच देंगे। यह सुझाव धूर्ततापूर्वक दिया गया है और वस्तुतः निराधार है। भारतीयोंको कभी हथियार नहीं दिये गये, इसलिए यह कहना स्पष्ट मूर्खता है कि यदि उनको हथियार दिये गये तो वे एक विशेष दिशामें काम करेंगे। यह भी सुझाया गया है कि यह प्रस्ताव सस्ती वाहवाही लूटने तथा कुछ ऐसी चीज प्राप्त करने के लिए किया गया है जो कांग्रेसकी सभाकी कार्यवाही में प्रकट नहीं की गई है। प्रथम वक्तव्य निन्दात्मक है, और उसके गलत साबित होनेका सर्वोत्तम मार्ग यही है कि ये संवाददाता सरकारको हमारा प्रस्ताव माननेके लिए तैयार करें और तब देखें कि प्रतिक्रिया पर्याप्त है अथवा नहीं। दूसरे वक्तव्यको तो समझना ही कठिन है। अगर उसका मंशा लोगोंपर यह छाप डालने का है कि भारतीय युद्ध कालमें सेवा करके अपनी शिकायतोंको दूर करानेकी आशा रखते हैं तो वक्तव्य ठीक है और इस उद्देश्यके लिए किसी भी भारतीयको लज्जित नहीं होना चाहिए। इससे ज्यादा अच्छी और प्रशंसनीय और क्या बात हो सकती है कि वर्तमान संकटके अवसरपर भारतीय अपने उपनिवेशवासी अन्य भाइयोंके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े हों और यह साबित करें कि वे नागरिकताके उन सामान्य अधिकारोंके, जिन्हें वे गत अनेक वर्षोंसे माँगते आ रहे हैं, अयोग्य नहीं हैं। परन्तु यह भी उतना ही सच है कि यह प्रस्ताव बिना शर्त, शुद्ध कर्त्तव्यके रूपमें, और इस बातका खयाल किये बिना किया गया है कि हमारी शिकायतें दूर होंगी या

 

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