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३३३. पत्र : लॉर्ड सेल्बोर्नको[१]

[जोहानिसबर्ग

मई १२, १९०६ के पूर्व]

महोदय,

आपका गत मासकी ३० तारीखका क्रमांक १५/४/१९०६ पत्र मिला। मेरे संघका यह मत है कि जो शिकायत[२] परमश्रेष्ठकी सेवामें बढ़ाई गई थी, उसकी वैसी जाँच नहीं की गई जैसी परिस्थितियोंके अनुसार आवश्यक थी। जहाँतक टालमटोलकी बात है, मेरा संघ नये विभागकी कारगुजारीपर निगाह रखेगा। इस बीच आपका ध्यान सादर इस तथ्यकी ओर आकर्षित करता हूँ कि प्रार्थनापत्र महीनोंसे विचारार्थ पड़े हुए हैं। एक तरफ इतनी देरदार की जाती है और दूसरी तरफ प्रार्थियोंकी सुविधाका खयाल रखनेका दावा किया जाता है। इन दोनोंका मेल बैठाना मेरे संघके लिए कठिन ही है।

जहाँतक श्री सुलेमान मंगाके मामलेका सम्बन्ध है, मेरे संघने पूरे तथ्योंका पता लगाया है और मेरे संघका खयाल है कि इस बारेमें परमश्रेष्ठको जो सूचना दी गई थी, वह किसी भी तरह पूर्ण नहीं है। प्रार्थनापत्रके सम्बन्धमें जो महत्त्वपूर्ण तथ्य दिये गये थे, उनमें एक भी गलत नहीं था। प्रार्थनापत्र श्री गांधीके द्वारा दिया गया था और मेरे संघको मालूम है कि श्री मंगाके एक मित्रसे उन्हें निर्देश प्राप्त हुए थे। प्रार्थनापत्रकी आधारभूमि यह नहीं थी कि श्री मंगा अपने चाचाको देखने जाना चाहते थे, बल्कि यह कि वह डेलागोआ बे जाते समय ट्रान्सवालसे गुजरना चाहते थे। उन्हें अस्थायी अनुमतिपत्रकी प्रार्थनाका अस्वीकृतिसूचक उत्तर १४ मार्चको मिला। रिश्तेदारके परिचयके सम्बन्ध में अन्तर तो प्रार्थनापत्रकी अस्वीकृति के बाद हुआ था। उपर्युक्त पत्रके उत्तरमें श्री गांधीने अनुमतिपत्र अधिकारीको अपना आश्चर्य प्रकट करते हुए जो पत्र लिखा, उसमें वे चाचाको पिता लिख गये। जैसा वे कहते हैं पूर्ववर्ती पत्रका हवाला न लेनेके कारण ही उनसे ऐसा हो गया। कुछ भी हो इसमें धोखा देनेका सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि रिश्तेका फर्क इतना हल्का है कि उसे सिर्फ एक गलती ठहराया जा सकता है। बल्कि सच पूछिए तो, जैसा अब पता चला है, डेलागोआ-बेमें श्री मंगाके न पिता थे, न चाचा बल्कि एक चचेरे भाई थे। इसी कारण एक दूसरी अशुद्धि भी हो गई कि श्री मंगाको उसमें ब्रिटिश भारतीय कहा गया, जबकि वह दरअसल पुर्तगाली भारतीय थे। यह सब इसलिए हुआ कि निर्देश देनेवाला श्री मंगाका एक ऐसा मित्र था जो उन्हें घनिष्ठ रूपमें नहीं जानता था। परन्तु इनमें से किसी भी तथ्यका कोई सीधा प्रभाव प्रार्थनापत्रपर नहीं पड़ता था। दूसरे पत्रमें इस आशयकी सूचना दी गई थी, कि श्री मंगा इंग्लैंडसे आनेवाले एक छात्र हैं। इस मामलेको बादमें जो रूप दिया गया, उससे तो यही दुःखदायी. तथ्य सामने आता है कि एक ब्रिटिश भारतीयकी हैसियतसे श्री मंगा वह न पा सके जो इस बातका पता लगनेपर कि वे पुर्तगाली प्रजा हैं, अनायास मिल गया। मेरे संघकी तुच्छ सम्मतिमें, श्री सुलेमान मंगाका मामला इस दृष्टिसे बहुत महत्त्वपूर्ण है कि उससे प्रकट हो जाता है कि ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीय समाज किस कठिन परिस्थितिमें है। अनुमतिपत्र नामंजूर करनेका जो कारण

 
  1. यह "ब्रिटिश भारतीय संघका उत्तर" शीर्षकसे इंडियन ओपिनियन में छपा था।
  2. देखिए "पत्र : विलियम वेडरबर्नको", पृष्ठ २८३-६।