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'इंडियन ओपिनियन' के बारेमें


इस हकीकतको सुनकर सर रिचर्डने वचन दिया कि वे इस मामलेकी ठीक-ठीक जाँच करायेंगे, और बादमें जवाब भेजेंगे। उन्होंने सद्भावना प्रकट की है, पर मालूम होता है कि आजकल सरकारके पास सद्भावनाकी विपुलता हो गई है; क्योंकि श्री विन्स्टन चर्चिलने भी भावना तो अच्छी ही प्रकट की है, किन्तु वे महानुभाव क्या करेंगे, सो तो वे ही जानें।

अनुमतिपत्रों सम्बन्धी हालत जैसी थी वैसी ही है। यहाँके अखबार 'रैंड डेली मेल' में श्री मंगाके मुकदमेके बारेमें बहुत कड़ी टीका छपी है। उसने दो अग्रलेख लिखे हैं। माना जा सकता है कि अनुमतिपत्र कार्यालयपर उसका असर धीरे-धीरे होगा।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-४-१९०६
 

३०७. 'इंडियन ओपिनियन' के बारेमें

इंडियन ओपिनियन के भविष्यके बारेमें विचार करने के लिए भारतीयों की बैठक सोमवार २३ अप्रैल १९०६ को इनमें श्री उमर हाजी आमद झवेरीके घर हुई थी। श्री अब्दुल्ला हाजी आमद झवेरी सभापति थे। इंडियन ओपिनियन की वर्तमान स्थितिके सम्बन्ध में जानकारी देनेकी विनती की जानेपर गांधीजीने यह बताया था :

डर्बन

अप्रैल २३, १९०६

'ओपिनियन' कुछ वर्षोंसे चल रहा है। इसके संस्थापक श्री मदनजीत हैं। उन्होंने इस पत्रके लिए मेहनत की, और अपना सब कुछ इसमें लगा दिया। पत्र शुरू करते समय यह खयाल नहीं हो पाया था कि इसमें पैसेकी जिम्मेदारी कितनी होगी। आगे चलनेपर यह मालूम हुआ कि इसे चलानेके लिए बहुत पैसेकी जरूरत है। जोहानिसबर्ग-निगम (कॉरपोरेशन) के खिलाफ लड़े गये मुकदमेके मेरे पास १,६०० पौंड आये थे। वह रकम लगा देनेपर भी कमी पूरी नहीं हुई।[१] हर महीने ७५ पौंडका नुकसान होने लगा। उसे पूरा करनेकी मेरी ताकत नहीं थी। इसलिए पत्रको दूसरी तरहसे चलानेके बारेमें सोचना पड़ा। यह तय हुआ कि छापाखाना बाहर ले जाया जाये[२] और कार्यकर्ता बहुत ही गरीबीसे रहें। इस निर्णयके समय श्री मदनजीतको जवाबदेहीसे मुक्त कर दिया गया। उन्हें यह डर था कि ऐसा करनेसे पत्र नहीं चल सकेगा, इसलिए उन्होंने उससे हाथ हटा लिया। अव जिम्मेदारी सिर्फ मेरी रही। श्री मदनजीतका नाम जैसा-का-तैसा चला आ रहा है, क्योंकि वे स्वयं स्वदेशाभिमानी हैं और उन्होंने निःस्वार्थ भावसे पत्र शुरू किया है। वे भारतमें अब भी देश-सेवाका कार्य करते रहते हैं।

ऊपर जैसा कहा गया है उस प्रकार यह अखबार कुछ समयसे चल रहा है। लेकिन वैसा करनेमें भी, मैं देखता हूँ, ऐसी स्थिति आ गई है कि यदि सँभाला न गया तो उसमें नुकसान होगा, और जो लोग ३ पौंडमें अपना गुजर चला रहे हैं उन्हें उतनी रकम देनेकी भी व्यवस्था न रहेगी। मैं आया तब ग्राहक संख्या ८८७ थी और विज्ञापन घट गये थे। मैं सोचता हूँ कि चाहे जिस तरह भी हो, जबतक छापाखानेके आदमी टिके रहेंगे तबतक मैं अंग्रेजी भाग

 
  1. देखिए "आत्मकथा", भाग ४, अध्याय १३।
  2. छापाखाना दिसम्बर १९०४ में फीनिक्स ले जाया गया।