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३०१. डर्बन नगर परिषद और भारतीय

'नेटाल मर्क्युरी' लिखता है, डर्बन नगर-परिषदकी परवाना-समितिने "इच्छा प्रकट की है कि परवाना अधिकारी फेरीके नये परवाने न दें और फेरीके वर्तमान परवानोंमें भी जितनी कमी करना सम्भव हो, करें; क्योंकि इस वर्गके व्यापारी दूकानदारोंके वैध व्यापारमें हस्तक्षेप करते हैं।" परवाना-समितिकी यह सिफारिश विक्रेता-परवाना अधिनियमके अनुसार किये गये निर्णयोंका परिणाम है। दादा उस्मानके मामलेके फैसले[१] तथा उक्त कानूनके अन्तर्गत दूसरे मामलोंमें जो फैसले हुए हैं उनके कारण नगर परिषदें अपनी दमन-नीति में साहसी बन गई हैं। पहले वे परवाना-अधिकारियोंको गोलमोल सुझाव दिया करती थीं; अब खुल्लम-खुल्ला हिदायतें देने लगी हैं। इसलिए यह परवानोंके प्रार्थनापत्रोंपर नगर परिषदों द्वारा अपने अधिकारियोंको आदेश देने और फिर उन अधिकारियोंके उस निर्णयपर, जो असलमें उन्हींका निर्णय है, स्वयं अपील सुननेका प्रश्न है। इस तरह वे परवाना अधिनियमको एक कोरा मजाक बना देंगी। फिर, जिन हिदायतोंका हमने ऊपर जिक्र किया है उनसे साफ जाहिर होता है कि विक्रेता-परवाना अधिनियमपर अमल करते समय सामान्य समाजका ध्यान न रखकर केवल दुकानदारोंका ध्यान रखा जाता है। चूंकि उनके व्यापारमें बाधा पड़नेकी सम्भावना है, इसलिए फेरीके नये परवानोंको जारी नहीं करना है और जो वर्तमान फेरीके परवाने हैं उनमें कमी करना है। फेरीवाले एक आवश्यकताकी पूर्ति करते हैं और उन गृहस्थोंके लिए, जिन्हें अपनी सभी वांछित वस्तुएँ अपने दरवाजेपर मिल जाती हैं, एक वरदान हैं — यह सब कुछ नगर-परिषदोंके लिए तबतक अर्थहीन है जबतक कि एक विशेषाधिकार सम्पन्न वर्गका संवर्धन किया जा सकता है। हमारे तर्कपर एतराज किया जा सकता है कि परवाना-समितिके निर्देश सर्व-सामान्य हैं; पर यही बात हमारे तर्कके विषयमें भी कही जा सकती है। वह भारतीय और यूरोपीय — दोनों तरहके फेरीवालोंपर लागू होता है। परन्तु वास्तवमें ऐसी नीतिका असर मुख्यतया भारतीयोंको ही सहना होगा; क्योंकि फेरी लगाना उनकी अपनी विशेषता है और डर्बनमें ज्यादातर फेरीवाले भारतीय हैं। फिर भी कानूनको लागू करनेमें हम इन ज्यादतियोंका स्वागत करते हैं; क्योंकि वे खुद ही अपने पीछे अपना सर्वनाश लायेंगी।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २१-४-१९०६
 
  1. देखिए "प्रार्थनापत्र : लॉर्ड एलगिनकी सेवामें", पृष्ठ २५६-८।