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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

व्यापारियोंके लिए न्यायपूर्ण नहीं है और परवाना अधिकारियोंके लिए तो वह और भी कम न्यायपूर्ण है। हम मनमाने व्यापारिक अधिकार नहीं माँगते, पर हम यह जरूर चाहते हैं कि प्रत्येक व्यापारिक प्रार्थनापत्रपर उसके गुणावगुणके अनुसार विचार किया जाये और जहाँ ऐसे प्रार्थनापत्रके विरुद्ध पूर्वग्रहके सिवा और कोई कारण न दिया जा सके वहाँ उसे स्वीकार किया जाये। हमारे सामने जो मामला है वह और भी कठिन हो गया है; क्योंकि प्रार्थीको दुधारी निर्योग्यतासे संघर्ष करना पड़ रहा है। ब्रिटिश भारतीय होनेके कारण उनको फाइहीडमें नेटाल कानूनकी सम्पूर्ण निर्योग्यताओंको झेलना पड़ता है और एक भी सुविधा नहीं मिलती, क्योंकि फाइहीडके नेटालमें मिला दिये जानेपर भी वहाँ ट्रान्सवालका १८८५ का कानून ३ जारी है। यह स्थिति बहुत ही असंगत है, और आशा है कि लॉर्ड एलगिन प्रार्थीको पर्याप्त न्याय दिलायेंगे।

उपनिवेशके घरेलू मामलोंमें हस्तक्षेपका प्रश्न स्वभावतः ही खड़ा किया जायेगा। पर जो लोग प्रातिनिधिक संस्थाओं द्वारा शासित उपनिवेशमें सर्वथा प्रतिनिधित्वहीन हैं उनके मामले में हस्तक्षेप न करनेका सिद्धान्त ठहर नहीं सकता। नेटालको स्वशासनका अधिकार इस अघोषित मान्यताके आधारपर प्राप्त है कि वह अपना शासन करने में समर्थ है। पर जब उपनिवेश में बसनेवाली प्रजाके एक वर्गको जरा भी न्याय नहीं मिलता तब वहाँ स्वशासन नहींके बराबर ही समझना चाहिए। स्वशासनका अर्थ है, आत्म-नियन्त्रण; यदि विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं तो उनके साथ जिम्मेदारियाँ भी अवश्य उठानी चाहिए; और अगर बिना जिम्मेदारियों का पालन किये इन विशेषाधिकारोंका पूरी सीमा तक उपभोग किया जाता है तो जिस सत्ताने उन्हें प्रदान किया है उसे निश्चय ही यह प्रबन्ध करनेका अधिकार है कि उन जिम्मेदारियोंका समुचित रूपसे पालन किया जाये।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १४-४-१९०६
 

२९६. परवाना सम्बन्धी विज्ञप्ति

कहा जाता है कि सरकारने व्यापारी-परवाना अधिकारियोंके मार्ग-दर्शनके लिए कुछ नियम बनाये हैं। इन नियमोंकी ओर एक गुजराती संवाददाताने हमारा ध्यान आकर्षित किया है। हमारे संवाददाताके कथनानुसार अधिकारियोंको आदेश दिये गये हैं कि वे आगेसे भारतीयोंको परवाने जारी करते समय परवानोंके दूसरे अर्द्धांशोंपर उनकी अँगुलियों व अँगूठेकी निशानी और हस्ताक्षर ले लिया करें। हम समझते हैं कि ऐसा शिनाख्तकी गरजसे किया गया है। अगर हमारी जानकारी ठीक है तो हमारे मनमें पहला सवाल यह उठता है कि यह नई निर्योग्यता सिर्फ भारतीयोंपर ही क्यों लगाई गई है? इस मामलेमें शिनाख्तकी क्या जरूरत है? क्या इसका अर्थ यह है कि नेटाल सरकार वर्तमान भारतीय व्यापारियोंके हटने के बाद भारतीयोंका व्यापार जारी रहने देना नहीं चाहती? दूसरे शब्दोंमें, क्या वह परवाना अधिकारियोंको यह बताना चाहती है कि भारतीय व्यवसाय उनके वर्तमान मालिकोंके साथ ही खत्म हो जायेंगे? यदि यह बात है तो, इसका अभिप्राय यह है कि जल्दी या देरसे, हर भारतीय व्यापारीको अपना चलता व्यवसाय बेचनेके बजाय लाचार होकर अपना माल ही बेच डालना होगा। फिर सरकारको इस प्रकार एकका पक्ष लेकर कानूनके अमलमें हस्तक्षेप क्यों करना चाहिए? यदि परवाना-अधिकारियोंको दूसरे खयाल छोड़कर केवल न्यायकी दृष्टिसे अपने विवेकका उपयोग