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एक परवाना सम्बन्धी प्रार्थनापत्र

जनिक रूपसे माफी माँगी।[१] उच्चायुक्तने मुख्य अनुमतिपत्र-सचिवको तुरन्त आदेश दिया कि वे श्री नोमूराको अनुमतिपत्र दे दें और वह अनुमतिपत्र डर्बनमें उनके घर जाकर खुद उनको दिया गया।

श्री मंगाका मामला श्री नोमूराके मामलेसे ज्यादा सबल है। वह जिस रूपमें पहले उपनिवेश-सचिवके सामने रखा गया उस रूपमें वह एक ब्रिटिश प्रजाजन और विद्यार्थीको ट्रान्सवालसे सिर्फ गुजरनेकी अनुमति माँगनेकी दरखास्त थी। उन्हें उपनिवेशमें कोई काम नहीं करना था; इसलिए किसीके साथ उनकी प्रतियोगिता नहीं हो सकती थी। हम पूछते हैं कि क्या एशियाई-विरोधी सम्मेलनका कोई अत्यन्त कट्टर सदस्य भी कभी श्री मंगा जैसे व्यक्तिकी अर्जी अस्वीकार करनेकी बात सोच सकता था? फिर भी जबतक श्री मंगा ब्रिटिश प्रजाजन समझे गये और जबतक एक विदेशी सरकार द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया गया तबतक ट्रान्सवाल-सरकारने उनके मामलेको ध्यान देने योग्य नहीं माना।

किन्तु ज्यों ही मालूम हो गया कि श्री मंगा पुर्तगाली प्रजाजन हैं, त्यों ही उनको अनुमतिपत्र दे दिया गया। इस मामलेका विशुद्ध निचोड़ यह है कि वर्तमान ट्रान्सवाल सरकारके हाथों ब्रिटिश भारतीयोंको न्याय नहीं मिल सकता। उनको अपमानित किया जा सकता है; उनको सब प्रकारकी असुविधाओंमें डाला जा सकता है; उनकी दरखास्तें संक्षिप्त कार्रवाईके बाद रद की जा सकती हैं; उन्हें सरकारके मनमाने निर्णयोंके कारण नहीं बताये जा सकते हैं; प्रामाणिक शरणार्थी होते हुए भी उनकी ट्रान्सवालमें पुनः प्रवेशकी माँगोंपर विचार करनेमें महीनों लग सकते हैं; और उनकी जीविका के साधन तक सरकारकी निरंकुश मर्जीपर निर्भर रहने दिये जा सकते हैं। तब भी, हमें लॉर्ड सेल्बोर्न विश्वास दिलाते हैं कि उनकी इच्छा भारतीयोंके साथ कठोर व्यवहार करने या शान्ति-रक्षा अध्यादेशकी धाराओंको किसी भी तरह अनुचित रूपसे बरतनेकी नहीं है।[२] इसलिए भारतीय समाजको पूरा अधिकार है कि वह लॉर्ड सेल्बोर्नसे उसके साथ कुछ न्याय करनेकी अपील करे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १४-४-१९०६
 

२९५. एक परवाना सम्बन्धी प्रार्थनापत्र

हमारे पाठकोंको फाइहीडवासी एक ब्रिटिश भारतीयके परवाना सम्बन्धी तथ्योंका स्मरण होगा। इस मामलेसे सम्बद्ध भारतीय व्यापारी श्री दादा उस्मान परवाना अधिनियम की स्थितिके कारण उस न्यायको, जिसका उन्हें हक था, पानेमें असफल रहे; इसलिए उन्होंने महामहिमके मुख्य उपनिवेश-मंत्रीको प्रार्थनापत्र[३] भेजा है और इसकी एक प्रति हमारे पास भी समीक्षाके लिए भेजी है। प्रार्थनापत्र विना नमक मिर्चका, एक तथ्यपूर्ण वक्तव्य है; परन्तु वह बहुत स्पष्ट रूपमें प्रकट कर देता है कि विक्रेता-परवाना अधिनियमके अमलका सामान्य प्रश्न उसकी तहमें है। जबतक उपनिवेशकी कानूनकी पुस्तकसे उसे हटा नहीं दिया जाता तबतक ब्रिटिश भारतीय व्यापारी आरामसे नहीं बैठेंगे। परवाना अधिकारियोंके हाथोंमें मनमाने अधिकार सौंप देना भारतीय

 
  1. देखिए "एक अन्तर", पृष्ठ २३३।
  2. देखिए "ट्रान्सवालके भारतीय और अनुमतिपत्र", पृष्ठ २०१-२।
  3. देखिए "प्रार्थनापत्र : लॉर्ड एलगिनको", पृष्ठ २५६-८।

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