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सम्पूर्ण गाँधी वाङमय

मकानके साथ लगी हों, बशर्ते कि वे रिहायशके काम आती हों। यह कर मकानोंके मालिकोंसे नहीं, उनमें जो रहते हैं उनसे वसूल किया जायेगा। इसलिए उसमें रहनेवाले व्यक्तिको भी १ पौंड १० शिलिंग वाषिक कर देना पड़ेगा; चाहे किसी कमरेकी कीमत केवल ५० पौंड ही क्यों न हो। बहुत-से कमरे केवल लकड़ी और लोहेके बने हैं, और उनका किराया शायद केवल पाँच शिलिंग मासिक दिया जाता है। इस किरायेमें भी सरकार आधा क्राउन [ढाई शिलिंग] मासिककी वृद्धि करना चाहती है। और कुछ नहीं तो, उसे छूटकी एक सीमा बाँध देनी थी और उससे नीचे कोई कर नहीं लगाना था। वर्तमान रूपमें विधेयकपर सब प्रकारकी गम्भीर आपत्तियां की जा सकती है। ये चारों विधेयक नये मन्त्रिमण्डलकी कार्रवाइयोंका एक नमूना है। हम यह कहने के लिए विवश है कि इनमेंसे प्रत्येकपर अनुभवहीनताकी छाप दिखाई दे रही है। सरकार इस उपनिवेशको आर्थिक कठिनाइयोंसे उबारनेके जो प्रयत्न कर रही है उनमें प्रत्येक सच्चे नागरिकको उसके साथ सहानुभूति है; परन्तु उसने आय बढ़ानेके जो साधन अपनाये है उनका उदाहरण युद्धकालको छोड़कर आजके जमानेमें प्राय: कहीं नहीं मिलता। ये चोखे आर्थिक सिद्धान्तोंके भी विरुद्ध है। हमें आशा है कि इस उपनिवेशकी नेकनामी और यशकी रक्षाकी खातिर विधानसभा और विधान परिषद इन विधेयकोंको एकदम अस्वीकार कर देंगी।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १-७-१९०५

२. श्री बाँड्रिक और ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय

सर मंचरजीके प्रश्नपर श्री ब्रॉड्रिकने ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थितिके विषयमें एक बड़ा महत्त्वपूर्ण उत्तर दिया है। बेथनल-ग्रीनके सदस्यने जोर दिया कि भारतीय समस्याका कुछ-न-कुछ हल निकाला जाना चाहिए और श्री ब्रॉड्रिकने जोर देकर कहा कि युद्धसे पहले भारतीय जिन अधिकारोंका उपभोग करते थे उनमें कमी नहीं की जायेगी; और, ट्रान्सवालको जितना भी हो सकता है उतना दबाया जा रहा है। परन्तु कोई स्वशासित उपनिवेश जिन लोगोंका अपने यहाँ प्रवेश करना अवांछनीय मानता है उनके सम्बन्धमें उसकी कार्रवाइयोंमें दखल देना मुश्किल है। श्री ब्रॉड्रिककी पहली बातका एकमात्र अर्थ यह हो सकता है कि साम्राज्य सरकारका इरादा यह ध्यान रखनेका है कि भारतीयोंके उन अधिकारोंमें कमी नहीं होने दी जाये जो उन्हें 'बोअर शासन के समय प्राप्त थे। परन्तु उस इरादेपर इस समय अमल नहीं किया जा रहा है। केवल एक उदाहरण ले लें। पहले ब्रिटिश भारतीयोंके प्रवेशपर कोई पाबन्दी नहीं थी। पर अब--जैसा कि इन स्तम्भोंमें बार-बार दिखाया जा चुका है--किसी नये भारतीयको तो ट्रान्सवालमें प्रविष्ट होने ही नहीं दिया जाता, पुराने निवासियों को भी केवल थोड़ी संख्यामें आने दिया जाता है, और वह भी थकाऊ, असुविधाजनक और खर्चीले जाब्तोमें से गुजरनेके

१. जिसके प्रधान सी० जे० स्मिथ थे।
२. जोन बॉड्रिक, भारतमन्त्री (१९०३-५)।
३. सर मंचरजी मेरवानजी भावनगरी (१८५१-१९३३): भारतीय बैरिस्टर, जो इंग्लेंडके निवासी बन

गये थे; ब्रिटिश संसद और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसकी लन्दन-स्थित ब्रिटिश समितिके सदस्य । देखिए खण्ड २,

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