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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


(छ) उनके ११ वर्षसे अधिक आयुके बच्चोंको साथ जानेसे सर्वथा रोक दिया जाता है।

(ज) ऐसे शरणार्थियोंके बारह वर्षसे कम उम्र के बच्चोंको आनेकी अनुमति देनेसे पहले अनुमतिपत्र लेनेके लिए बाध्य किया जाता है। अभी हालमें एक छः वर्षके बच्चेको — बावजूद इसके कि उसके पिताके पंजीयन प्रमाणपत्रमें यह लिखा था कि उसके दो पुत्र हैं — उसके पितासे जबरन अलग कर फोक्सरस्टमें रोक दिया गया, क्योंकि उसके पास अलग अनुमतिपत्र नहीं था।

(झ) केवल तीन मास पूर्व १६ वर्षसे कम आयुके बच्चोंको ट्रान्सवालमें प्रवेशकी स्वतन्त्रता थी, बशर्ते कि उनके माता-पिता, या यदि उनके माता-पिता मर गये हों तो वे अपने जिन संरक्षकों के साथ हों, वे ट्रान्सवालके अधिवासी हों। अब, जैसा कि ऊपर कहा गया है, सहसा भारतीयोंपर नया विनियम लागू कर दिया गया है और केवल उन बच्चोंको, जो बारह वर्षसे कम आयुके हैं, प्रवेशकी अनुमति दी जाती है। इसका परिणाम है कि १६ वर्षसे कम आयुके वे बहुत-से लड़के, जो काफी खर्च करके दक्षिण आफ्रिकामें आये हैं, अपने ट्रान्सवालके अधिवासी माता-पिताके पास रहने के बजाय भारत वापस जानेके लिए बाध्य हैं।

(ञ) करीब तीन मास पूर्व उन भारतीयोंको, जो दक्षिण आफ्रिकाके अन्य भागों में जानेके लिए ट्रान्सवालसे गुजरना चाहते थे या जो कोई काम करना चाहते थे, अनुमतिपत्र खुले आम और बड़ी संख्या में दिये जाते थे। अब इस तरहके अनुमतिपत्र अत्यधिक जाँच-पड़ताल के बाद ही दिये जाते हैं। डेलागोआ बेके एक प्रसिद्ध भारतीय व्यापारीके पुत्र श्री सुलेमान मंगा[१], जो इस समय इंग्लैंडमें बैरिस्टरी पढ़ रहे हैं, हालमें ही डेलागोआ-वेमें अपने सम्बन्धियोंसे मिलनेके लिए वहाँसे वापस आये थे। वे डर्बनमें उतरे और उन्होंने अनुमतिपत्र प्राप्त करनेके लिए प्रार्थनापत्र दिया ताकि वे ट्रान्सवाल होते हुए डेलागोआ बे जा सकें। उन्हें अनुमतिपत्र देनेसे इनकार कर दिया गया। उनके मामलेपर इस दृष्टिसे विचार किया गया जैसे कि वे एक ब्रिटिश भारतीय हों। इसलिए वे जल-मार्गसे डेलागोआ-वे गये। वहाँ उन्होंने फिर ट्रान्सवाल सरकारकी मारफत एक अस्थायी अनुमतिपत्र प्राप्त करनेका प्रयत्न किया, क्योंकि वे जोहानिसबर्ग और प्रिटोरिया देखना चाहते थे। किन्तु उनका प्रार्थनापत्र अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए उन्होंने विचार किया कि उनका जन्म पुर्तगाली भारतमें हुआ है, इसलिए उन्हें पुर्तगाली सरकारसे प्रार्थना करनी चाहिए। उन्होंने वसा ही किया और उन्हें तुरन्त अनुमतिपत्र दे दिया गया। इसलिए इसका अर्थ यह हुआ कि एक ब्रिटिश भारतीय, चाहे वह किसी भी स्थितिका क्यों न हो, ट्रान्सवालसे सही-सलामत नहीं गुजर सकता, किन्तु यदि कोई भारतीय विदेशी सत्तासे सम्बन्ध रखता है तो उसे माँगते ही अनुमतिपत्र मिल जाता है।

(ट) ऊपरके कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि अच्छी स्थितिके भारतीय ट्रान्सवाल में बसने के लिए अनुमतिपत्र प्राप्त करनेमें असमर्थ हैं, अर्थात् शान्ति-रक्षा अध्यादेशको इस तरह अमलमें लाया जाता है कि जहाँ युद्धके पूर्व कोई भी भारतीय ट्रान्सवालमें प्रवेश करनेको स्वतन्त्र था, वहाँ अब सम्राट्के उपनिवेश ट्रान्सवालमें उस भारतीयका भी प्रवेश वर्जित है जो स्वशासित उपनिवेश केप या नेटालकी शैक्षणिक परीक्षा उत्तीर्ण करनेमें समर्थ होनेके कारण वहाँ प्रवेश कर सकता है। यहाँ सवाल ब्रिटिश सरकार द्वारा युद्ध-पूर्वका कानून विरासत में प्राप्त करनेका नहीं है, बल्कि एक ऐसे अधिनियमको जानबूझकर अमलमें लानेका है जो फौजी कानूनके ठीक बाद पास किया गया था और जिसका भारतीयोंसे कोई सम्बन्ध नहीं था।

स्वर्गीय श्री अबूबकर आमदने, जो दक्षिण आफ्रिकामें सर्वप्रथम बसनेवाले भारतीयोंमें से थे, अपने ब्रिटिश भारतीय उत्तराधिकारियोंके लिए जो सम्पत्ति छोड़ी थी उसे १८८५ के कानून ३ के

 
  1. "ट्रान्सवाल अनुमतिपत्र अध्यादेश", पृष्ठ २८८-९ भी देखिए।