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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

रहेगी। अब केवल संसदके द्वारा राजनीतिक लड़ाई लड़नी रह गई है। हम जानते हैं कि वे यह लड़ाई लड़ेंगे। उपर्युक्त फैसलेसे यह तो स्पष्ट हो गया है कि सन् १८८५ का कानून बड़ा जुल्मी कानून है। न्यायाधीशोंने भी इसे कबूल किया है। सर हेनरी कॉटनने इस सम्बन्धमें एक सवाल संसदमें पूछा है। देखें, उसका नतीजा क्या निकलता है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ७-४-१९०६
 

२८७. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

अप्रैल ७, १९०६

अनुमतिपत्र

अनुमतिपत्रकी तकलीफ अभी बढ़ती ही जा रही है। लोगोंकी कहीं सुनवाई नहीं होती। शरणार्थियोंकी अर्जियाँ जहाँ-की-तहाँ पड़ी धूल खा रही हैं। फेरफार होते ही रहते हैं। इस तरह् जलती आग में घी होमा गया है। श्री सुलेमान मंगा डेलागोआ बेके प्रसिद्ध व्यापारी श्री इस्माइल मंगाके रिश्तेदार हैं। वे इंग्लैंडमें बैरिस्टरीकी परीक्षाके लिए पढ़ रहे हैं। वे अपने रिश्तेदारोंसे मिलनेके लिए, कुछ दिन हुए, विलायतसे यहाँ आये हैं। उनका डर्बनमें उतरकर ट्रान्सवालके रास्ते डेलागोआ-बे जानेका इरादा था। उनकी तरफसे श्री गांधीने मुद्दती अनुमतिपत्रके लिए अर्जी दी, लेकिन उपनिवेश सचिवने अनुमतिपत्र देनेसे इनकार कर दिया। कुछ दिन डर्बनमें राह देखनेके बाद श्री मंगा समुद्र के रास्ते डेलागोआ बे गये। वहाँसे उन्होंने फिर खुद ही अर्जी दी, पर इनकारीका जवाब मिला। अबतक इस खयालसे काम होता रहा कि श्री मंगा ब्रिटिश प्रजाजन हैं। श्री मंगा विलायतका जोश लेकर आये थे। वे चुपचाप बैठे रहनेवाले नहीं थे। दमनमें[१] जन्म होनेके कारण पुर्तगाली प्रजा होनेका लाभ उठाकर, वे डेलागोआ-बे में सरकारी सचिवके पास पहुँचे और उससे उन्होंने अपने लिए अनुमतिपत्रकी माँग की। इसपर सचिवने तत्काल ब्रिटिश वाणिज्य दूतके नाम पत्र लिखा और उन्होंने फौरन ही अनुमतिपत्र दिलवा दिया। मतलब यह कि अगर श्री मंगा ब्रिटिश प्रजाजन होते तो वे ट्रान्सवालकी स्वर्णभूमिपर पैर नहीं रख सकते थे, लेकिन पुर्तगाली प्रजा होनेके कारण तुरन्त आ सके।

श्री मंगा एक दिन जोहानिसबर्ग में रहकर वापस डेलागोआ-बे चले गये हैं। शासनके ऐसे बेहूदे व्यवहारके बारेमें संघने[२] सरकारको और लॉर्ड सेल्बोर्नको भी लिखा है। लॉर्ड सेल्बोर्नने पत्रकी पहुँच भेजते हुए उत्तर दिया है कि वे इस मामलेकी जाँच कर रहे हैं। श्री गांधीने भी 'ट्रान्सवाल लीडर'[३] में पत्र लिखा है। श्री सुलेमान मंगाके मामलेमें ऐसा अन्याय हुआ है कि उससे, सम्भव है, सोती हुई अंग्रेज सरकारकी आँखें कुछ तो खुलेंगी ही। जापानी प्रजाजन श्री नोमूराको अनुमतिपत्र देनेसे इनकार किया गया था तो समूचा ट्रान्सवाल थर्रा उठा था।[४] लेकिन उसी हैसियतके ब्रिटिश प्रजाजनका क्या कोई हाल पूछनेवाला ही नहीं है?

 
  1. भारत में पुर्तगाली अधिकृत क्षेत्र।
  2. ब्रिटिश भारतीय संघ।
  3. देखिए "पत्र : 'लीडर' को", पृष्ठ २७२।
  4. देखिए "ट्रान्सवालों अनुमतिपत्र सम्बन्धी जुल्म", पृष्ठ २६५।