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२८६. ट्रान्सवालमें जमीनका कानून
एक महत्वपूर्ण मुकदमा

ट्रान्सवालमें, पृथक् बस्तीके बाहर, एक ही जमीन एक भारतीयके नामपर पंजीकृत थी। वह थी प्रसिद्ध सेठ स्वर्गीय अबूबकर आमदके नामपर प्रिटोरियाकी चर्च स्ट्रीटमें। स्वर्गीय श्री अबूबकरने वह जमीन १८८५ के जून महीनेमें खरीदी थी। उसके दस्तावेज पंजीयक कार्यालय में १८८५ के जून महीनेकी १२ तारीखको दाखिल हुए थे। भारतीयोंके विरुद्ध जो कानून बना, वह १७ जूनसे अमलमें आया। उपर्युक्त दस्तावेजके पंजीकृत होनेमें कुछ अड़चन पैदा हुई। तिसपर ब्रिटिश एजेंटने हस्तक्षेप किया और उस समयके स्टेट अटर्नीने एक पत्र लिखा, तब पंजीयकने २६ जून को दस्तावेज पंजीकृत किये। सन् १८८८ में श्री अबूबकर गुजर गये। तबसे अबतक उस जमीन-पर श्री अबूबकरके वारिसोंका अथवा उनके न्यासियोंका कब्जा था और वे ही उसका उपभोग करते थे। कानूनके अनुसार व्यक्तिके मर जानेपर उसकी मिल्कियतका प्रबन्ध सरकारके द्वारा होना चाहिए। लेकिन इस मिल्कियतके मामलेमें ऐसा नहीं हुआ, और जमीन वारिसोंके नामपर दर्ज हुए बिना ज्यों-की-त्यों पड़ी रही। जमीन बेकार पड़ी थी इसलिए सन् १९०५ में यह तय हुआ कि उसपर घर बनानेके लिए उसे लम्बी मुद्दतके पट्टेपर दे दिया जाये। ट्रान्सवालके कानूनके अनुसार हर लम्बी मुद्दतके पट्टेका पंजीयकके दफ्तर में पंजीयन होना चाहिए। अतएव जमीन वारिसोंके नामपर दर्ज करानेकी कार्रवाई शुरू करनी पड़ी, क्योंकि कानूनके अनुसार जमीन मृत मनुष्योंके नामपर दर्ज नहीं रह सकती। चूंकि वारिस भारतीय थे, इसलिए पंजीयकने जमीन उनके नामपर दर्ज करनेसे इनकार कर दिया। इसपर पंजीयकके खिलाफ न्यायालय में अपील की गई। पंजीयकने वारिसोंके नामपर जमीन दर्ज न करनेके दो कारण बताये। पहला यह कि, जमीन १८८५ का कानून ३ पास होनेके बाद पंजीकृत हुई और चूंकि उस कानूनके अनुसार भारतीय अपने नामपर जमीन नहीं रख सकता इसलिए स्वर्गीय श्री अबूबकरके नामपर जो दस्तावेज पंजीकृत हुआ वह गैर-कानूनी था। अतः वह रद होना चाहिए। दूसरा कारण यह कि, स्वर्गीय श्री अबूबकरके नामका दस्तावेज कानून सम्मत माना जाये, तो भी चूंकि वारिस भारतीय हैं, इसलिए १८८५ के कानून ३ के मुताबिक वे जमीन अपने नामपर नहीं करा सकते। पंजीयककी दूसरी दलील मान्य करके न्यायमूर्ति फॉक्सने, जिनके सामने यह अपील पेश हुई थी, अपील रद कर दी। इसपर वारिसोंकी ओरसे सर्वोच्च न्यायालयमें अपील की गई। वारिसोंकी तरफसे श्री लेनर्ड और श्री ग्रेगोरस्की बैरिस्टर किये गये थे। वारिसोंकी ओरसे यह मांग की गई थी कि सर्वोच्च न्यायालय यदि वारिसोंके नामपर जमीन दर्ज करनेकी आज्ञा न दे, तो भी २१ वर्षकी मुद्दतका पट्टा पंजीकृत करने और इस बीच दस्तावेज स्वर्गीय श्री अबूबकरके नाम रहने देनेका आदेश दे। श्री लेनर्डने बहुत जोरदार दलीलें दीं, और न्यायाधीशोंने भी बहुत सहानुभूति दिखाई, लेकिन लाचारी प्रकट करते हुए कहा कि वे वारिसोंको न्याय नहीं दे सकते। न्यायाधीशोंने बताया कि १८८५ का कानून ही बहुत बुरा है। और उस कानूनके विरुद्ध जाकर न्याय प्राप्त करना हो तो केवल संसदसे ही प्राप्त किया जा सकता है। इस तरहका फैसला हो जानेसे वारिसोंके पास जमीनको बचानेका तत्काल एक ही उपाय रह गया था; और वह था, जमीन किसी भी गोरेके नामपर दर्ज कराकर कब्जा अपने हाथमें रखना। यह कार्रवाई उन्होंने की है। इससे उनके उपभोगमें कोई बाधा नहीं आयेगी। फिर भी सर्वोच्च न्यायालयके फैसलेकी दृष्टिसे वह उनके नामपर नहीं लिखी जा सकती, इससे उन्हें अत्याचारकी अनुभूति हुए बिना नहीं